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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध परेणपरं-तारतम्य वाला है। अत्थि-है, परन्तु । असत्थं-संयमः। परेण परं नत्थितारतम्य-उतार-चढाव वाला नहीं है।
मूलार्थ-मुनि एक अनन्तानुबन्धी क्रोध का क्षय करता हुआ दर्शन सप्तक का भी क्षय करता है और दर्शन सप्तक का क्षय करता हुआ एक अनन्तानुबन्धी क्रोध का क्षय कर देता है। ऐसा श्रद्धावान भगवत्प्रणीत आज्ञा के अनुसार अनुष्ठान करता हुआ बुद्धिमान साधक भगवान के उपदेश से लोक को जानकर किसी भी जीव को भय न दे, क्योंकि असंयम तारतम्य रूप वाला होता है, परन्तु संयम उतार-चढ़ाव वाला नहीं होता। हिन्दी-विवेचन
जैन दर्शन विकासवादी है। वह आत्मा के स्वतन्त्र विकास पर विश्वास करता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से विकास करके निर्वाण-पद को प्राप्त करता है। प्रस्तुत सूत्र में इसी श्रेणिविकास का क्रम बताया गया है।
जब साधक क्षपकश्रेणी पर चढ़ता है तो वह अनन्तानुबन्धी कषाय, दर्शन-सम्यक्त्वमोहनीय; मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय इन सात प्रकृतियों को क्षय करके क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। उक्त गुणस्थान से ही उसका विकास आरम्भ होता है, दृष्टि में एक नया परिवर्तन आता है। उसका चिन्तन-मनन .. अब बाह्याभिमुखी नहीं, अपितु आत्माभिमुखी होता है।
इसके बाद वह अप्रत्याख्यानी कषाय, प्रत्याख्यानी कषाय एवं संज्वलन के क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता हुआ पांचवें, छठे, सातवें आदि गुणस्थानों को लांघकर तेरहवें गुणस्थान में पहुंचता है और वहां से चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त करके वहां समस्त कर्मों का आत्यन्तिक क्षय करके और मन-वचन एवं काय का निरोध करके निर्वाण-पद को प्राप्त करता है। इस प्रकार साधक सदा कर्मबन्धन को शिथिल-ढीला करने की साधना में लगा रहता है। कुछ साधक एक भव में समस्त कर्मों को क्षय करने में समर्थ नहीं होते। उनकी साधना में इतनी तेजस्विता नहीं होती कि वे शीघ्र गति से सभी सीढ़ियों को पार कर सकें। फिर भी उनका लक्ष्य संपूर्ण कर्म क्षय करने का होता है और वे उसी श्रेणी-क्रम से उस लक्ष्य तक पहुंचने का प्रयत्न करते हैं।