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तृतीय अध्ययन,
उद्देशक 4
उभय शब्दों का 'परेण' - तेजोलेश्या से भी 'परं ' - विशिष्टतर लेश्या को प्राप्त करना
अर्थ होता है।
'नामे' यह क्रियापद है, जैसे- नामयति - क्षपयति 'लोकस्य संयोगं' पद में आत्मा के अतिरिक्त पुत्र, पत्नी आदि परिवार में आसक्त रहना । अतः इसका अभिप्राय यह है कि मुनि को धन-वैभव एवं पारिवारिक सम्बन्ध का त्याग करके संयम का परिपालन करना चाहिए।
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जो आत्मा अनन्तानुबन्धी आदि कर्म-प्रकृतियों का क्षय करने को तैयार होता है, उस समय उन्हीं का क्षय करता है या साथ में अन्य प्रकृतियों का भी क्षय करता है, इसे बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - एगं विगिंचमाणे पुढो विगिंच, पुढोवि एगं, सड्डी आणाए मेहावी लोगं च आणाए अभिसमिच्चा अकुओभयं, अत्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्यं परेण परं ॥ 125 ॥
छाया - एक क्षपयन् पृथक् (अन्यदपि ) क्षपयति, पृथगपि (अन्यदपि ) श्रद्धी (श्रद्धावान्) आज्ञया मेधावी लोकं च आज्ञया अभिसमेत्याकुतोभयं, अस्ति शस्त्रं परेण परं नास्ति अशस्त्रं परेण परम् ।
ह-क्षय
• पदार्थ - एगं - एक मोहनीय कर्म का । विगिंचमाणे- -क्षय करता हुआ साधक । पुढो - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन अनेक कर्मों का । विगिंच - करता है । पुढोवि-ज्ञानावरणीय आदि अनेक कर्मों का क्षय करता हुआ साधक। एगं - एक कर्म का क्षय करता है ।
आणाए-भगवत्प्रणीत आगम के अनुसार आचरण करने वाला । सड्ढी - श्रद्धावान और मेहावी - बुद्धिमान साधक द्वारा। लोगं-छह काय के जीव लोक को । आणाए - आगम के उपदेश से । अभिसमिच्चा - जानकर । अकु ओभयं - किसी भी प्राणी को भय न हो, वैसा व्यवहार करना चाहिए । सत्यं - शस्त्र रूप असंयम ।
क्षयंघातिभवोपग्राहीकर्मणांवा क्षयमवाप्नुवन्ति' एवं विधाश्च कर्म क्षपणोद्यत जीवितं कियद्गतं किं वा शेषमित्येवं नावकांक्षन्ति ।”