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________________ 524 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध इस प्रकार आत्मा समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है; क्योंकि दुःखों का मूल कारण कर्म है और विषय-वासना की आसक्ति एवं राग-द्वेष से कर्म का बन्ध होता है। इसलिए साधक राग-द्वेष एवं विषयों की आसक्ति का परित्याग करके मोक्ष-मार्ग पर चले। इससे वह उसी भव में या परम्परा से-कुछ भवों में समस्त कर्मों का नाश करके निर्वाण पद पा लेता है। प्रस्तुत सूत्र में 'महाजाणं-महायान' शब्द का प्रयोग मोक्षमार्ग के अर्थ में किया गया है। इसके अतिरिक्त ‘यान' शब्द का चारित्र अर्थ भी होता है। अतः 'महायान' का अर्थ हुआ-उत्कृष्ट चारित्र'। धैर्यवान पुरुष चारित्र की आराधना करके मोक्ष को प्राप्त करते हैं; अतः इस अपेक्षा से चारित्र को भी महायान कहा है। क्या चारित्र की आराधना से आत्मा उसी भव में मोक्ष प्राप्त कर लेती है या वह देव, मनुष्य आदि गतियों में कुछ भव करके मोक्ष प्राप्त करती है? कुछ आत्माएं उसी भव में समस्त कर्मों से मुक्त हो जाती हैं और कुछ आत्माएं संयम के साथ सरागता होने के कारण सौधर्म आदि स्वर्गों में उत्पन्न होती हैं। और वहां मनुष्य एवं विशिष्ट स्वर्गों में उत्पन्न होता हुआ, एक दिन मोक्ष को प्राप्त करता है। प्रस्तुत सूत्र में इस बात को ‘परेण परं जाति' पाठ से अभिव्यक्त किया है। ‘परेण (तृतीयांत) और परं (द्वितीयान्त) इन दोनों शब्दों का कई अर्थों में प्रयोग होता है। जैसे-1-धीर पुरुष संयम की आराधना से स्वर्ग और परम्परा से मोक्ष को प्राप्त करते हैं। 2-आत्मा चतुर्थ गुणस्थान में चढ़ते हुए, पंचम गुणस्थान आदि में होता हुआ अयोगि केवली 14वें गुणस्थान में पहुंच जाता है। 3-अनन्तानुबन्धी क्षय से दर्शन और चारित्र मोहनीय कर्म या घाति एवं अघाति कर्मों का क्षय कर देता है । इसके अतिरिक्त इन 1. महद्यान-सम्यग् दर्शनादित्रयं यस्य स महायानो मोक्षः। -आचारांग वृत्ति 2. यान्त्यनेन मोक्षमिति यानं-चारित्रं तच्चानेकभवकोटिदुर्लभं लब्धमपि प्रमाद्यतस्तथाविध कर्मोदयात् स्वप्नावाप्तनिधिसमतामवाप्नोत्यतो महच्छब्देन विशेष्यते, महच्च तद्यानं च महायानमिति। -आचारांग वृत्ति 3. यथा-“परेण-संयमेनोदिष्ट विधिनां परं-स्वर्गं पारम्पर्येणापवर्गमपि यान्ति, यदि-वा . परेण-सम्यग्वृष्टिगुणस्थानेन ‘परं'-देशवृत्यायोगिकेवलि पर्यंत गुणस्थानकमधितिष्टन्ति, परेण वा अनन्तानुबन्धि क्षयेणोल्लसत्कंडकस्थानाः ‘परं'. 'दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीय
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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