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तृतीय अध्ययन, उद्देशक 4 करता है, वह एक को क्षय करता है। लोक के दुःख को जान कर और उसके संयोग को त्याग कर धीर पुरुष मोक्ष मार्ग पर चलते हैं और वे अनुक्रम से मोक्ष को प्राप्त करते हैं। वे महापुरुष कभी भी असंयममय जीवन की इच्छा नहीं करते।
हिन्दी-विवेचन . भय मोह जन्य है। चूंकि वह चारित्र मोहनीय कर्म की एक प्रकृति है, इसलिए
असंयमनिष्ठ जीवन में उसका उदय रहता है। इससे प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि प्रमादी व्यक्ति को सब प्रकार से भय है, अर्थात् जहां प्रमाद है वहीं सब भय हैं। जब आत्मा अप्रमत्त भाव में विचरण करती है, तब मनुष्य को कोई भय नहीं रह जाता है। इसका कारण यह है कि प्रमादी व्यक्ति की दृष्टि में भौतिक पदार्थों की मुख्यता है, अतः उनके नाश या वियोग की स्थिति उत्पन्न होते ही मन में भय एवं कम्पन उत्पन्न हो जाता है। परन्तु अप्रमत्त मुनि का चिन्तन आत्माभिमुखी होता है, शरीर एवं अन्य भौतिक साधन उसकी दृष्टि में केवल आत्म विकास के साधन मात्र हैंइससे अधिक नहीं, इसलिए और साधनों का तो क्या, देह के विनाश का प्रसंग आने पर भी वह भयभीत नहीं होता। वह उसे उसी प्रसन्न भाव से त्याग देता है, जिस प्रसन्न भाव से पुरातन वस्त्र का परित्याग करता है। अतः संयमनिष्ठ अप्रमत्त व्यक्ति को किसी भी प्रकार का भय नहीं होता, वह सदा निर्भय होकर विचरता है। वह अभय का देवता न स्वयं भयभीत होता है और न अन्य किसी भी प्राणी को भयभीत करता है। ___ जहां भय रहता है, वहां मोह कर्म की अन्य प्रकृतियां भी रहती हैं। वस्तुतः मोह कर्म ही सब कर्मों का राजा है। उसका नाश करने पर शेष कर्मों का नाश करना सरल हो जाता है। इसलिए कहा गया कि जो व्यक्ति मोह कर्म की एक प्रकृति अनन्तानुबन्धी क्रोध को क्षय कर देता है, वह शेष प्रकृतियों को भी क्षय कर देता है और जो मोह कर्म की बहुत-सी प्रकृतियों को क्षय करता है, वह अनन्तानुबन्धी क्रोध का भी नाश करता है या जो मोह कर्म को क्षय करता है; वह बहुत-से कर्मों का अर्थात् तीन घातिकर्मों-ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्म का उसी समय नाश करता है
और शेष कर्मों का आयुकर्म के क्षय के साथ क्षय कर देता है। और जो बहुत-से कर्मों का क्षय करता है, वह मोह कर्म का भी क्षय करता है।