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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
पर वह अज्ञान के आवरण को अनावृत करके पूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर लेती है और सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी होकर संसार के प्राणियों को मोक्ष-मार्ग दिखाती है।
सर्वज्ञ बनने के बाद तीर्थंकर क्या उपदेश देते हैं। इसे बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं, जे एगं नामे से बहुं नामे; जे बहुं नामे से एगं नामे, दुक्खं लोगस्स जाणित्ता वंता लोगस्स संजोगं जंति धीरा महाजाणं, परेण परं जंति, नावकंखति जीवियं॥124॥
छाया-सर्वतः प्रमत्तस्य भयं, सर्वतोऽप्रमत्तस्य नास्ति भयम्। यः एक नामयति स बहून् नामयति यः बहून् नामयति स एकं नामयति दुःखं लोकस्य ज्ञात्वा वान्त्वा लोकस्य संयोगं यान्ति धीराः महायानं परेण परं यान्ति नावका क्षन्ति जीवितम्।
पदार्थ-पमत्तस्स-प्रमादी व्यक्ति को। सव्वओ-सबं तरह से। भयं-भय है। अप्पमत्तस्स-अप्रमत्त को। सव्वओ-सर्व तरह से। भयं-भय। नत्थि-नहीं है। जे-जो। एगं-एक अनन्तानुबन्धी क्रोध को। नामे-क्षय करता है। से-वह। बहुं-बहुत-से मानादि को भी। नामे-क्षय करता है। जे–जो। बहुं-बहुतों को। नामे-क्षय करता है। से-वह। एगं-एक अनन्तानुबन्धी क्रोध को। नामे-क्षय करता है। लोगस्स-लोक के। दुक्खं-दुःख को। जाणित्ता-जानकर फिर। लोगस्स-लोक के। संजोगं-संयोग को। वंता-छोड़ कर। धीरा-धीर पुरुष। महाजाणं जन्ति-महायान को अर्थात् एक जन्म में ही दर्शनादि का ग्रहण करके मुक्त हो जाते हैं अथवा। परेणपरंजंति-परम्परा से आगे बढ़ता हुआ मोक्ष को प्राप्त करता है। परन्तु। नावकंखन्ति जीवियं-असंयम जीवन की इच्छा नहीं करते।
मूलार्थ-प्रमत्त-प्रमादी जीव को सब तरह से भय है और अप्रमत्त को सर्व तरह से कोई भय नहीं। जो एक अनन्तानुबन्धी क्रोध को क्षय करता है, वह अन्य बहुत-सी कर्म-प्रकृतियों को क्षय करता है, और जो बहुत-सी कर्म-प्रकृतियों को क्षय