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________________ 522 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध पर वह अज्ञान के आवरण को अनावृत करके पूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर लेती है और सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी होकर संसार के प्राणियों को मोक्ष-मार्ग दिखाती है। सर्वज्ञ बनने के बाद तीर्थंकर क्या उपदेश देते हैं। इसे बताते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं, जे एगं नामे से बहुं नामे; जे बहुं नामे से एगं नामे, दुक्खं लोगस्स जाणित्ता वंता लोगस्स संजोगं जंति धीरा महाजाणं, परेण परं जंति, नावकंखति जीवियं॥124॥ छाया-सर्वतः प्रमत्तस्य भयं, सर्वतोऽप्रमत्तस्य नास्ति भयम्। यः एक नामयति स बहून् नामयति यः बहून् नामयति स एकं नामयति दुःखं लोकस्य ज्ञात्वा वान्त्वा लोकस्य संयोगं यान्ति धीराः महायानं परेण परं यान्ति नावका क्षन्ति जीवितम्। पदार्थ-पमत्तस्स-प्रमादी व्यक्ति को। सव्वओ-सबं तरह से। भयं-भय है। अप्पमत्तस्स-अप्रमत्त को। सव्वओ-सर्व तरह से। भयं-भय। नत्थि-नहीं है। जे-जो। एगं-एक अनन्तानुबन्धी क्रोध को। नामे-क्षय करता है। से-वह। बहुं-बहुत-से मानादि को भी। नामे-क्षय करता है। जे–जो। बहुं-बहुतों को। नामे-क्षय करता है। से-वह। एगं-एक अनन्तानुबन्धी क्रोध को। नामे-क्षय करता है। लोगस्स-लोक के। दुक्खं-दुःख को। जाणित्ता-जानकर फिर। लोगस्स-लोक के। संजोगं-संयोग को। वंता-छोड़ कर। धीरा-धीर पुरुष। महाजाणं जन्ति-महायान को अर्थात् एक जन्म में ही दर्शनादि का ग्रहण करके मुक्त हो जाते हैं अथवा। परेणपरंजंति-परम्परा से आगे बढ़ता हुआ मोक्ष को प्राप्त करता है। परन्तु। नावकंखन्ति जीवियं-असंयम जीवन की इच्छा नहीं करते। मूलार्थ-प्रमत्त-प्रमादी जीव को सब तरह से भय है और अप्रमत्त को सर्व तरह से कोई भय नहीं। जो एक अनन्तानुबन्धी क्रोध को क्षय करता है, वह अन्य बहुत-सी कर्म-प्रकृतियों को क्षय करता है, और जो बहुत-सी कर्म-प्रकृतियों को क्षय
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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