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तृतीय अध्ययन : शीतोष्णीय चतुर्थ उद्देशक
तृतीय उद्देशक में संयम, आत्मचिन्तन एवं परीषहों के उपस्थित होने पर भी धैर्य एवं सहिष्णुता बनाए रखने का उपदेश दिया है । वस्तुतः देखा जाय तो अधैर्य एवं .. चंचलता का कारण कषाय, राग-द्वेष एवं भय ही हैं । अतः प्रस्तुत उद्देशक में इनके त्याग का उपदेश दिया गया है। उसका प्रारम्भ करते हुए कहा है
मूलम् - से वंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च, एयं पास दंसणं, उवरयसत्थस्स, पलियंतकरस्स आयाणं सगडब्भि ॥122 ॥
छाया - सः वमिता क्रोधं च मानं च मायां च लोभं च एतत् पश्यकस्य दर्शनं, उपरत शस्त्रस्य पर्यन्तकरस्य आदानं स्वकृतभित् ।
पदार्थ - से- वह, जो त्यागी है। कोहं - क्रोध को । च - और । माणं - मान को । च - और । मायं - माया को । च - और । लोभं - लोभ को । वंता - छोड़ता है। च-और। आयाणं-कर्मास्रव को छोड़ता है, वह । सगडब्मि - स्वकृत कर्मों का भेदन करता है। एयं - - यह । दंसणं- अभिप्राय । उवरयसत्थस्स - द्रव्य और भाव शस्त्र से निवृत्त । पलियंतकरस्स - कर्मों का या संसार का अन्त करने वाले । पासगस्स - भगवान महावीर का है 1
मूलार्थ - जो ज्ञान से युक्त संयमनिष्ठ मुनि है, वह कषाय- -क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन - त्याग कर देता है। जो कर्मास्रव का परित्याग करता है, वह स्वकृत कर्मों का भेदन करता है । संसार और कर्मों का अन्त करने वाले तथा द्रव्य और भाव शस्त्र से रहित भगवान महावीर ने ऐसा उपदेश दिया है ।
हिन्दी - विवेचन
साधना का उद्देश्य है-कर्मों से सर्वथा मुक्त होना । इसलिए प्रत्येक तीर्थंकर भगवान अपने शासनकाल में मोक्ष - मार्ग का उपदेश देते हैं । प्रस्तुत सूत्र में भगवान