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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
महावीर कषाय के त्याग का उपदेश देते हैं। कषाय से कर्म का बन्ध होता है और कर्म-बंध से जीव संसार में परिभ्रमण करता है। इसलिए साधक को चाहिए कि वह संसार-परिभ्रमण में सहायक क्रोध आदि का परित्याग कर दे। जो व्यक्ति कषाय का परित्याग कर देता है, वह स्वकृत कर्म का भी भेदन कर देता है; क्योंकि कषाय कर्म-बंधन का कारण है और जब कारण नष्ट कर देंगे तो कार्य का नाश सहज ही हो जाएगा। अतः कर्म का क्षय करने के लिए पहले कषाय-त्याग का उपदेश दिया गया है।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'पासगस्स दंसणं' का अर्थ है-लोक के समस्त पदार्थों के यथार्थ द्रष्टा को पश्यक कहते हैं, ऐसे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर जी हैं, और उनका उपदेश एवं दर्शन 'पासगस्स दंसणं' कहलाता है। 'आयाणं' शब्द से हिंसा आदि 5 आस्रव एवं 18 पाप स्वीकार किए गए हैं। इनके द्वारा ही जीव अष्ट कर्मों को बांधता है। इसलिए इन्हें 'आयाणं-आदान' कहते हैं।
वस्तु के यथार्थ स्वरूप को सर्वज्ञता या सर्वज्ञ के ज्ञान से ही जाना जा सकता है। इसलिए उक्त विषय में सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ॥123॥
छाया-यो एक जानाति स सर्व जानाति, यः सर्वं जानाति स एक जानाति।
पदार्थ-जे-जो। एग-एक-परमाणु या आत्मा की स्वपर्याय और परपर्याय को। जाणइ-जानता है। से-वह। सव्वं-सर्व द्रव्यों की स्व-पर पर्यायों को। जाणइ-जानता है। जे-जो। सव्वं-सर्व वस्तु को। जाणइ-जानता है। से-वह।
1. सर्व निरावर्णत्वात्पश्यति-उपलभत इति पश्यः स एव पश्यकः-तीर्थकृत्। श्री वर्द्धमान
स्वामी तस्य दर्शनम्-अप्रभिप्रायो यदिवा दृश्यते यथावस्थितं वस्तुतत्त्वमनेनेत्ति दर्शनम्उपदेशः।
_ -आचारांग वृत्तिः 2. आदीयते-गृह्यते आत्मप्रदेशैः सहश्लिष्यतेऽष्ट प्रकार कर्म येन तदादानं-हिंसाद्याश्रवद्वारमष्टादशपापस्थानरूपं वा।
. -आचारांग वृत्तिः .