SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 607
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 518 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध केवल भौतिक दुःख नाश का नहीं, बल्कि समस्त दुखों का एवं संसार-भ्रमण के कारण कर्म का क्षय करने का रहता है। अतः वह अपनी वृत्ति को बाहर से मोड़ कर अन्दर की ओर हटा लेता है। या यों कहिए कि सदा आत्मसाधना में संलग्न रहता है। __इसलिए प्रस्तुत सूत्र में साधक को आदेश देते हुए कहा गया है कि तू साधु जीवन की साधना को देख और अपने आचरण को उसके अनुरूप ढालने का प्रयत्न कर; क्योंकि संयमनिष्ठ मुनि तप-संयम की साधना से मोक्ष पथ पर बढ़ता हुआ , लोक-संसार के समस्त प्रपंचों से मुक्त हो जाता है। निष्कर्ष यह रहा कि साधु को ज्ञान के साथ धैर्यशील एवं सहिष्णु होना चाहिए। कष्ट एवं वेदना के समय भी उसे साहस, शांति एवं आत्म-चिन्तन का त्याग नहीं करना चाहिए और जीवन से निराश होकर संकल्प-विकल्प में नहीं उलझना चाहिए। रोग उपशांति के लिए औषध की आवश्यकता पड़ने पर निर्दोष एवं सात्त्विक औषध का सेवन करते हुए भी धैर्य एवं आत्मचिन्तन में संलग्न रहना चाहिए, क्योंकि जब योगों की प्रवृत्ति चिन्तन में लगी रहेगी तो बाह्य वेदना की अनुभूति स्वतः कम हो जाएगी। इससे आत्मा में शांति की अनुभूति होगी और पहले के बंधे हुए कर्मों की निर्जरा भी होगी। इसलिए साधक को कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए हर स्थिति-परिस्थिति में आत्माभिमुख होकर चलना चाहिए। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें। ॥ तृतीय उद्देशक समाप्त ॥
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy