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________________ तृतीय अध्ययन, उद्देशक 3 517 वन्दन, सत्कार पाने के लिए, मान-सम्मान एवं पूजा-प्रतिष्ठा पाने के लिए अनेक प्रकार से प्रमाद का सेवन करता है। वह अपने स्वार्थ को साधने के लिए हिंसा आदि अनेक दोषों का सेवन करता है और विषय-वासना में अधिक आसक्त होने के कारण रात-दिन अव्रत का पोषण करने में लगा रहता है। इससे वह पाप कर्म का बन्ध करके संसार में परिभ्रमण करता है। निष्कर्ष यह है कि राग-द्वेष के वश जीव हिंसादि दोषों में प्रवृत्त होकर पाप कर्मों का संग्रह करता है और परिणामस्वरूप दुःखों के प्रवाह में प्रवहमान रहता है। अतः साधक को राग-द्वेष का त्याग कर देना चाहिए। जो व्यक्ति राग-द्वेष का परित्याग कर देते हैं, उनके विषय में सूत्रकार कहते हैं- मूलम्-सहिओ दुक्खमच्चत्ताए पुट्ठो नो झंझाए, पासिमं दविए लोकोलोकपवंचाओ मुच्चइ, त्तिबेमि॥121॥ छाया-सहितोदुःखमात्रया स्पृष्टः नो झञ्झयेत् (नो व्याकुलितमतिर्भवेत्) पश्य! इमं द्रव्यः लोकालोक प्रपंचात् मुच्यते। इति ब्रवीमि। पदार्थ-सहिओ-हित-ज्ञान आदि से युक्त। दुक्खमच्चत्ताए-दुःख मात्र से। पुट्ठो-स्पर्शित हुआ। नो झंझाए-व्याकुल न होवे। पासिमं-हे शिष्य! तू इस बात को देख। दविए-द्रव्यभूत-मोक्ष मार्ग पर गतिशील साधु। लोकालोकपवंचाओ-लोक के प्रपंच से। मुच्चइ-मुक्त हो जाता है। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। ___मूलार्थ-ज्ञानवान साधु दुःखों से स्पर्शित होने पर भी आकुल-व्याकुल नहीं होते। अतः हे साधक! तू मोक्षमार्ग पर चलने वाले साधुओं को देख। जो लोक के प्रपंच से मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन .. विचारशील, चिन्तनशील साधक कष्ट उपस्थित होने पर भी आकुल-व्याकुल नहीं होता। घबराता नहीं और न वह उन कष्टों को दूर करने के लिए कोई सावंद्य --- अनुष्ठान ही करता है। वह समस्त दुःखों का मूल कारण कर्म को ही मानता है। अतः वह अपनी शक्ति दुखों के मूल का उन्मूलन करने में लगा देता है। उसका प्रयत्न
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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