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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
सकते हैं। ऐसी बात नहीं है कि उनके शरीर को ताप नहीं हुआ हो, परन्तु उनका चिन्तन आत्मस्वरूप में था, इसलिए उन्हें उसकी अनुभूति नहीं हुई ।
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मनुष्य जब देहाभिमुख होकर सोचता है तो उसे अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों तथा स्पर्शो आदि में आनन्द एवं अरति ( दुःख) की अनुभूति होती है। उससे उसके मन में राग-द्वेष की भावना जागृत होती है, विषयों की आसक्ति बढ़ती है और परिणामस्वरूप संसार परिभ्रमण बढ़ता है । परन्तु साधक आत्माभिमुख होता है। अतः जब वह धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में संलग्न होता है तो उस समय उसे आनन्द एवं अरति का प्रसंग उपस्थित होने पर भी उसका संवेदन नहीं होता; क्योंकि उस समय योगों की प्रवृत्ति चिन्तन में लगी होती है। अतः साधक को आत्मानुभूति के अतिरिक्त अन्य अनुभूति नहीं होती। दूसरा कारण यह है कि रति एवं अरति मोह जन्य है और वहां मोह कर्म का अभाव होने के कारण उभय विकारों की अनुभूति को पनपने का अवकाश ही नहीं मिलता।
इससे स्पष्ट हो गया कि जब साधक आत्मचिन्तन में तल्लीन होता है, तब उसे पौगलिक सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती है और ऐसी स्थिति में ही ध्यान एवं चिन्तन-मनन में तेजस्विता आ पाती है । आगम में भी कहा गया है कि जब साधक का मन लेश्या, अध्यवसाय, तीव्र अध्यवसाय, आत्म चिन्तन में लगा होता है तथा उसे जिन वचनों में या आत्म-चिन्तन में अनुराग होता है, अपने योगों को आत्म-चिन्तन में अर्पित कर देता है; उसी की भावना रखता है और उसका मन अन्यत्र कहीं भी नहीं जाता है, तब उसे ध्यान कहते है ' ।
ध्यान योगों को एकाग्र करने का साधन है और इसी साधना के बल से साधक एक दिन शुक्लध्यान के द्वारा योगों का निरोध कर अयोगी अवस्था को प्राप्त करता है और फिर समस्त कर्मों एवं कर्म जन्य साधनों से सर्वथा मुक्त होकर निर्वाण पद को प्राप्त करता है, अपने साध्य को पा लेता है । अस्तु, ध्यान एवं आत्म-चिन्तन, मनन साध्य सिद्धि का साधन हैं । इसलिए साधक को हास्य आदि का परित्याग
1. तच्चित्ते, तम्मणे, तल्लेसे, तदज्झवसिए, तत्तिव्वज्झवसाणे, तदट्ठोवउते तदप्पि करणे, तब्भावणाभाविए, अणत्ध कत्थइंमणं अकरेमाणे.... ।
- अनुयोगद्वार सूत्र 27 ( मूल सुत्ताणि) पृ. 349