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तृतीय अध्ययन, उद्देशक 3
____513 करके तथा विषय-वासना से मन एवं इन्द्रियों का गोपन करके, उसे ध्यान एवं चिन्तन-मनन में संलग्न होना चाहिए।
इसका निष्कर्ष यह है कि मनुष्य को अपनी आत्मा पर निर्भर रहना चाहिए, क्योंकि उसमें अनन्त शक्ति विद्यमान है। अपना विकास करने में वही समर्थ है। संसार की कोई भी शक्ति न उसे गिरा सकती है और न उसे उठा सकती है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि हे पुरुष-आत्मन्! तू ही अपना मित्र है। फिर अपने को छोड़कर बाहर मित्रों को कहां ढूंढ़ता फिरता है? मुझे अपनी शक्ति को पाने के लिए बाहर नहीं, अपने अंदर ही झांकने की आवश्यकता है। तू अपनी दृष्टि को बाहर से हटाकर अपने अंदर मोड़ ले, फिर अनन्त ज्ञान-दर्शन की ज्योति से तू ज्योतिर्मान हो उठेगा, तेरे अंदर ही अनन्त सुख का सागर लहर-लहर कर लहराता दिखाई देगा और तेरे जीवन के कण-कण में अनन्त शक्ति का संचार होने लगेगा। यह अनन्त चतुष्टय तेरे ही भीतर निहित है। इसे प्रकट करने के लिए अन्तर्द्रष्टा बनकर आत्मचिन्तन और ध्यान में संलग्न होने की आवश्यकता है। __ प्रस्तुत सूत्र में 'पुरुष' को सम्बोधित किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि ध्यान एवं आत्मचिन्तन का अधिकारी पुरुष ही हैं।
आत्मचिन्तन की पूर्व भूमिका का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-जं जाणिज्जा उच्चालइयं तं जाणिज्जा दूरालइयं, जं जाणिज्जा दूरालइयं तं जाणिज्जा उच्चालइयं, पुरिसा! अत्ताणमेवं अभिणिगिज्झ एवं दुक्खा पमुच्चसि, पुरिसा सच्चमेव समभिजाणाहि, सच्चस्स आणाए से उवट्ठिए मेहावी मारं तरइ, सहिओ धम्ममायाय सेयं समणुपस्सइ॥119॥
छाया-यं जानीयादुच्चालयितारं तं जानीयात् दूरालयिकं, यं जानीयाद् दूरालयिकं तं जानीयादुच्चालयितारम्, पुरुष! आत्मानमेवाभिनिगृह्य एवं दुःखात् प्रमोच्यसि, पुरुष! सत्यमेव समाभिजानीहि सत्यस्य आज्ञयोपस्थितो मेधावी मारंतरति, सहितोधर्ममादाय श्रेयः समनुपश्यति।
1. पुरुषद्वारामंत्रणं तु पुरुषस्यैवोपदेशाहित्वात्तदनुष्ठानसमर्थ त्वाच्चेति। -आचारांग वृत्ति