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तृतीय अध्ययन, उद्देशक 3
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• छाया-का अरतिः? कः आनन्दः? अत्रापि अग्रहः चरेत, सर्वं हास्यं परित्यज्य आलीनगुप्तः परिब्रजेत्, हे पुरुष! त्वमेव तव मित्रम् किं बहिर्मित्रमिच्छसि?
पदार्थ-का अरई-क्या अरति है? के आणंदे-क्या आनन्द है? इत्थंपि-इस विषय में। अग्गहे-अनासक्त होकर। चरे-विचरण करे, और। सव्वं-सब प्रकार के। हासं-हास्य को। परिच्चज्ज-परित्याग करे। आलीणगुत्तो-गुप्तेन्द्रिय होकर। परिव्वए-संयम का परिपालन करे। पुरिसा-हे पुरुष-आत्मन्। तुममेव-तू ही-सदनुष्ठान करने से। तुम मित्तं-अपना मित्र है, फिर तू। बहिया-अपने आत्मस्वरूप से बाहर अन्य को। किं मित्तमिच्छसि-मित्र बनाने की क्या इच्छा रखता है अथवा अपने से बाहर मित्र ढूंढ़ता क्यों फिरता है?
मूलार्थ-हे आर्य! धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में संलग्न मुनि को यह अनुभूति नहीं होती कि भौतिक अरति-दुःख एवं आनन्द क्या है? वह दुःख-सुख के संवेदन से अनासक्त होकर आत्म-चिन्तन में तल्लीन होकर रहता है। इसलिए मुनि को कछुए की भांति मन एवं इन्द्रियों का गोपन करके संयम-साधना में प्रवृत्त रहना चाहिए; क्योंकि वस्तुतः तेरी आत्मा ही तेरा मित्र है, अर्थात् सदनुष्ठान में प्रवृत्त आत्मा से ही तू कर्मों का आत्यन्तिक क्षय कर सकता है। अतः हे पुरुष-आत्मन् ! तू ही तेरा मित्र है फिर तू अपने से बाहर अन्य मित्रों की क्यों इच्छा रखता है, .. अर्थात् अपने मन को अन्यत्र से हटाकर अपनी आत्मज्योति को जगा। हिन्दी-विवेचन • जीवन में योगों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये कर्म बन्धन के भी कारण हैं। और निर्जरा के भी कारण है। जब योगों की प्रवृत्ति विषय-वासना में होती है, तो उनसे पाप कर्म का बन्ध होता है और जब इन्हें बाह्य पदार्थों से हटाकर संयम में, ध्यान एवं चिन्तन-मनन में लगाते हैं, तो ये निर्जरा के कारण बन जाते हैं। क्योंकि उस समय साधक की प्रवृत्ति आत्माभिमुख होती है। उसे इस बात का कोई ध्यान ही नहीं रहता कि बाहर क्या कुछ हो रहा है। जिस समय वह आत्मचिन्तन में संलग्न रहता है, उस समयं उसे शारीरिक अनुभूति भी नहीं होती है। इसलिए उसे यह भान नहीं रहता कि दुःख एवं आनन्द क्या है। जिस समय गजसुकुमाल मुनि के सिर पर सोमिल ब्राह्मण ने प्रज्वलित अंगारे रखे तो उनको तीव्र वेदना हुई होगी; इसकी हम कल्पना कर