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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध सदा एक रूपता नहीं रहती। सर्वज्ञ इस बात को प्रत्यक्ष देखते हैं। इसलिए कहा गया है कि तथागत-सर्वज्ञ अतीत और अनागत काल की पर्यायों को एक रूप से स्वीकार नहीं करते। वे भूत एवं भविष्य काल के भोगों में आसक्त भी नहीं होते और न विषय-भोगों की आकांक्षा ही रखते हैं। क्योंकि उन्होंने आकांक्षा के उत्पादक राग-द्वेष का ही क्षय कर दिया है। ___ 'तथागत' शब्द का अर्थ है-सर्वज्ञ। इसकी व्याख्या करते हुए वृत्तिकार लिखते हैं- “जो पुनरावृत्ति से रहित है और जो पदार्थ को यथार्थ स्वरूप-पूर्ण रूप से जानते है,” उन्हें तथागत कहते हैं-अरिहंत, सिद्ध और सर्वज्ञ को तथागत कहा जाता है।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'विहुय कप्पे-विधूत कल्पः' का अर्थ है-अष्टकर्मों को आत्मा से पृथक् करने वाला व्यक्ति ।
कर्म क्षय करने के लिए उद्यत मुनि जब धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में निमग्न होता है, तब उसे शारीरिक, मानसिक एवं भौतिक सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती।
उस समय उसकी जो स्थिति होती है, उसका वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-का अरई के आणंदे? इत्थंपि अग्गहे चरे, सव्वं हासं परिच्चज्ज आलीणगुत्तो परिव्वए, पुरिसा! तुममेव तुम मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि?॥118॥
1. तथैव-अपुनरावृत्त्या गतं-गमनं येषां ते-तथागताः-सिद्धाः, यदि यथैव ज्ञेयं तथैव
गतं-ज्ञानं येषां ते तथागताः-सर्वज्ञाः, ते तु नातीतमर्थमनागतरूपतयैव नियच्छंतिअवधार-यन्ति, नाप्यनागतमतिक्रान्तरूपतयैव, विचित्रत्वात् परिणतेः, पुनरर्थग्रहणं पर्यायरूपार्थार्थं, द्रव्यार्थतया त्वेकत्वमेवेति, यदिवा नातीतमर्थं विषयभोगादिकं नाप्यनागतं दिव्यांगनासंगादिकं स्मरन्त्यभिलषन्ति वा, के? तथागताः-रागद्वेषाभावात्, पुनरावृत्तिरहिता; तु शब्दो विशेषमाहा-यथा मोहोदयादेके पूर्वमागामि वाऽभिलषन्ति, सर्वज्ञास्तु नैवमिति।
-आचारांग वृत्तिः 2. विविधम्-अनेकधाधूतम्-अपनीतमष्टप्रकारं कर्म येन सः विधूतः; कोऽसौ? कल्पः
आचारो, विधूतः कल्पो यस्य साधो सः विधूतकल्पः । -आचारांग वृत्तिः