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तृतीय अध्ययन, उद्देशक 3
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हिन्दी-विवेचन ___ मोह एवं अज्ञान से आवृत्त आत्मा अपने स्वरूप को नहीं जान सकती। वह न अपने पूर्व भव को देख सकती है और न भविष्य के स्वरूप को जान सकती है। इसलिए अज्ञानी लोग आत्मा के सम्बन्ध में विभिन्न कल्पनाएं करते रहते हैं। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि जिस व्यक्ति का जो रूप इस समय है, वही रूप इसके पूर्व भवों में भी था और भविष्य में भी वही स्वरूप रहेगा। सती प्रथा इसी परम्परा की देन थी। पति की मृत्यु होने पर उसके शव के साथ पत्नी के जीवित शरीर को इसलिए जला दिया जाता था कि आगामी भव में फिर से दोनों पति-पत्नी के रूप में आबद्ध हो सकेंगे। इन लोगों की यह मान्यता रही है कि पुरुष सदा पुरुष ही बनता है और स्त्री स्त्री ही बनती है। प्राणी के लैंगिक जीवन में कोई अन्तर नहीं आता। परन्तु यह मान्यता असत्य है। ___ आत्मा की तरह लिंग नित्य नहीं है; क्योंकि लिंग कर्मजन्य है और कर्म में परिवर्तन होता है। इससे स्पष्ट है कि आत्मा अपने कृत कर्म के अनुसार कभी पुरुष वेद को प्राप्त करता है, कभी स्त्री वेद को, तो कभी नपुंसक वेद को वेदता है। जैन दर्शन की मान्यता है कि कर्म-परिवर्तन के कारण आत्मा एक भव में भी तीनों वेदों को वेद सकती है। इसका तात्पर्य यह है कि वेदोदय का सम्बन्ध मोह कर्म जन्य वासना की प्रबलता पर है। यदि वासना जल्दी जागृत होती है और भोग के बाद शीघ्र ही शांत हो जाती है, तो वहां पुरुष वेद का उदय रहता है। लेकिन जहां वासना
जागृत होने के बाद बहुत देर तक शांत नहीं होती है, तो वहां स्त्री वेद का उदय होता : है। इसी तरह जहां वासना की आग हर समय प्रज्वलित रहती है, वहां नपुंसक वेद
का उदय समझना चाहिए। जिस समय पुरुष में वासना की प्रबलता रहती है और वह जल्दी शांत नहीं होती है, तो उस समय वह लैंगिक रूप से पुरुष होते हुए भी स्त्री वेद को वेदता है और यदि किसी नारी के जीवन में वासना की स्वल्पता है और उसे जल्दी ही सन्तोष हो जाता है, तो वह स्त्रीलिंग में पुरुषवेद का वेदन करती है। इस प्रकार मोह कर्म के शमन के साथ वेद के संवेदन में भी परिवर्तन आ जाता है।
इससे स्पष्ट है कि लिंग में हर समय एकरूपता नहीं रहती। अतः उक्त कथन तथागत-सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित नहीं है, क्योंकि पर्यायें सदा परिवर्तनशील हैं। उनमें