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तृतीय अध्ययन, उद्देशक 3 कर्मबन्ध नहीं होता है। जो समभाव पूर्वक संयमसाधना में संलग्न है, उसके पाप कर्म का बन्ध नहीं होता; क्योंकि वह रूप आदि विषयों में मुग्ध एवं आसक्त नहीं होता। अतः समभाव की साधना ही मुनित्व की साधना है। इस साधना में प्रवर्त्तमान साधक किसी भी प्राणी का छेदन-भेदन एवं अवहनन नहीं करता है और न अन्य व्यक्ति उसका छेदन-भेदन एवं अवहनन करते हैं।
हिंसा में प्रवृत्त होने का कारण राग-द्वेष है। राग द्वेष से निवृत्त व्यक्ति हिंसा में प्रवृत्त नहीं होता। इसलिए वह संसार में परिभ्रमण भी नहीं करता है, अर्थात् वह चार गति के आवागमन को समाप्त कर देता है। अतः साधक को गति-आगति के स्वरूप को जानना चाहिए। उसके यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता मुनि ही गमनागमन के दुःखों से बच सकता है। लोक में चार गतिएं मानी गई हैं-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। संसारी प्राणी अपने-अपने कृत कर्म के अनुसार इन गतियों में गमनागमन करते हैं। इसके अतिरिक्त मोक्ष पांचवीं गति मानी गई है। मनुष्य साधना के द्वारा मोक्ष में जा सकता है; परन्तु वहां से वापस आना नहीं होता; क्योंकि वहां आत्मा की शुद्ध अवस्था रहती है, उस गति में जाने वाले जीव के कर्म एवं कर्म जन्य उपाधि नहीं रहती। इसलिए वह फिर से जन्म नहीं लेता। मानव ही उत्कृष्ट साधना के द्वारा सर्व कर्मों को नष्ट करके उक्त गति में जा सकता है। अतः मोक्ष गति मनुष्य भव की अपेक्षा से मानी गई है। - प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'कंचंण' शब्द का 'केनचित्' रूप बनता है। इसका अर्थ है-राग-द्वेष से रहित आत्मा को किसी के द्वारा छेदन-भेदन आदि का भय नहीं रहता, वह अभय का देवता स्वयं निर्भय होकर प्राणी जगत को अभयदान देता है
जो व्यक्ति लोक एवं गतागति के स्वरूप को नहीं जानते हैं अथवा जिन्हें यह ज्ञात नहीं है कि हम कहां से आए हैं, हमें कहां जाना है तथा हमें किस वस्तु की प्राप्ति होगी; वही व्यक्ति संसार में दुःखों का अनुभव करता है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार लिखते हैंमूलम्- अवरेणपु िनसरंति एगे, किमस्स तीयं किं वागमिस्सं?
भासंति एगे इह माणवाओ, जमस्स तीयं तमागमिस्सं॥11॥