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तृतीय अध्ययन, उद्देशक 3
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मूलम्- समयं तत्थुवेहाए अप्पाणं विप्पसायएअणन्नपरमं नाणी, नो पमाए कयाइवि।
आयगुत्ते सयावीरे, जाया मायाइ जावए॥10॥ विरागं रूवेहिं गच्छिज्जा, महया खड्डएहिं य, आगइं गईं परिण्णाय दोहिं वि अन्तेहिं आदिस्समाणेहिं से न छिज्जइ न भिज्जइ न डज्झइ न हम्मइ कंचणं सव्वलोए ॥117॥ ___ छाया-समतां तत्रोत्प्रेक्ष्य आत्मानं विप्रसादयेह्यत् । अनन्य परमज्ञानी नो प्रमादयेत् कदाचिदपि आत्म गुप्तः सदा वीरः यात्रामात्रया यापयेत्, विरागं रूपेषु गच्छेत्, महता क्षल्लकेषु च आगतिं गतिं परिज्ञाय द्वाभ्यामप्यन्ताभ्यामदृश्यमानाभ्यां स न छिद्यते न भिद्यते न दह्यते न हन्यते केनचित् सर्व लोके।
पदार्थ-समयं-समता को। तत्थुवेहाए-उस संयम में पर्यालोचन करके-जो कुछ करता है, वह सब मुनित्व का ही कारण है, अथवा। समयं-आगम के। तत्थुवेहाए-अनुसार जो अनुष्ठान किया जाता है, वह सब। मुनित्व-मुनि भाव का ही कारण है, अतः । अप्पाणं-आत्मा को समता भाव से। विप्पसायए-प्रसन्न करे, तथा। नाणी-ज्ञानी पुरुष। अणन्नपरम-संयम में। कयाइवि-कभी भी। नो पमाए-प्रमाद न करे। आयगुत्ते-वह आत्मगुप्त। सया-सदा। वीरे-कर्म विदारण में समर्थ। जायामायाइ-संयम यात्रा मात्रा से। जावए-काल यापन करे। (अब आत्म गुप्तता के कारणों का निर्देश करते हैं)। आगई गइं-संसार में आवृत्ति-आगमन और गति-गमन अर्थात् संसार परिभ्रमण को। परिण्णाय-जानकर। अंतेहिं-राग-द्वेष। दोहिं वि-दोनों को। अदिस्समाणेहिं-आत्मा से अदृश्य करता हुआ, अर्थात् राग-द्वेष से निवृत्त होता हुआ। रूवेहिं-प्रिय रूपों में। विरागं-वैराग्य भाव को। गच्छेज्जा-प्राप्त करे, और। महया-दिव्य भाव से, अर्थात् प्राधान्यरूप से पुनः। खुड्डएहि-मनुष्य के रूपों में सब में वैराग्य भाव उत्पन्न करके, फिर। से-उसका। सव्वलोए-समस्त लोक में। कंचणं-किसी के द्वारा। न छिज्जइ-छेदन नहीं किया जाता। न भिज्जइ-भेदन नहीं किया जाता। न डज्झइ-दग्ध नहीं किया जाता। न हम्मइ-न हनन किया जाता है।