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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
मुनित्व का सम्बन्ध भावना से है । आगम में बताया गया है कि जो व्यक्ति वस्त्र, गन्ध, अलंकार, स्त्री आदि भोगोपभोग के साधनों का उपभोग करने में स्वतन्त्र न होने के कारण भोग नहीं करता है; परन्तु उसके मन में भोगेच्छा अवशेष हैं, तो वह त्यागी नहीं है, उसे मुनि नहीं कह सकते' ।
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इससे स्पष्ट हो जाता है कि मुनित्व भावपूर्वक किए गए त्याग में है । केवल लोकज्जा या लोकभय की दृष्टि से किसी पाप में प्रवृत्त न होना ही मुनित्व नहीं है ।
निश्चय नय की अपेक्षा से मुनित्व आत्मा में राग-द्वेष के त्याग एवं सब प्राणियों के प्रति समानता के भाव में है, परन्तु यह अन्तर्दृष्टि प्रत्येक व्यक्ति नहीं देख सकता । इसका साक्षात्कार सर्वज्ञ या स्वयं आत्मा ही कर सकता है। साधारणतः मनुष्य व्यवहार को ही देख सकता है। इस दृष्टि से निश्चय के साथ व्यवहार का भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है और इसी कारण किसी भी वेश-भूषा एवं अवस्था में सर्वज्ञ होने के बाद भी वे महापुरुष स्वलिंग को धारण करते हैं। भरत चक्रवर्ती को गृहस्थ के वेश में आरिसा भवन - कांच के महल में केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था। उसके बाद उन्होंने गृहस्थ लिंग का परित्याग करके मुनि वेश को स्वीकार किया। यह कार्य केचल व्यवहार का पालन मात्र है। इससे व्यवहार शुद्धि बनी रहती है, क्योंकि व्यवहार भी भाव या निश्चय शुद्धि का साधन है।
इस अपेक्षा से पारस्परिक व्यवहार शुद्धि के लिए दोषों से बचना एकांत रूप से अमुनित्व का परिचायक नहीं है । इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि व्यवहार के साथ निश्चय और निश्चय के साथ व्यवहार का सम्बन्ध जुड़ा रहे। लोक मर्यादा के साथ आत्म भावना धूमिल न पड़ने पाए। अस्तु, आत्मा के उज्ज्वल, समुज्ज्वल प्रकाश में व्यावहारिकता का परिपालन करना मुनित्व है। जहां आत्मज्योति दीप्त नहीं है, वहां केवल दिखाने मात्र के लिए व्यावहारिकता को निभाने में मुनित्व का अभाव है, वहां द्रव्य ही रह जाता है ।
मुनित्व भाव की साधना को सफल बनाने के लिए साधक को किस भाव की साधना करनी चाहिए, इसका उपदेश देते हुए सूत्रकार कहते हैं
1. दशवैकालिक सूत्र, सूत्र -2-2।