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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
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पदार्थ- संधि - अवसर - धर्म साधना के अवसर को । जाणित्ता - जानकर । लोयस्स - लोक के जीवों को कष्ट नहीं देना, बल्कि उन्हें अपनी आत्मा के समान समझना चाहिए। पास - ऐसा देख, जैसे । आयओ - अपनी आत्मा को सुख प्रिय है, वैसे ही। बहिया - अन्य आत्माओं को भी सुख प्रिय है । तम्हा - इसलिए। न हंता - किसी जीव को नहीं मारना चाहिए । न विघायए-न उनकी विशेष रूप से घात - विघात करनी चाहिए । जमिणं - जो यह । अन्नमन्न वितिगिच्छाए - परस्पर भय या लज्जा के कारण । पडिलेहाए- प्रतिलेखन करके । पावं कम्मं - पाप कर्म । न करे - नहीं करता है, तो। किं- क्या । तत्थ - उस पाप कर्म के नहीं करने में। मुणी - मुनि। कारणं सिया- कारण है - मुनित्व है।
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मूलार्थ - हे आर्य ! लोक में धर्म करने के अवसर को जानकर, तू प्रत्येक आत्मा को अपनी आत्मा के समान देख और यह समझ कि मेरी ही तरह प्रत्येक प्राणी को सुखप्रिय और दुःख अप्रिय है । इसलिए किसी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए और न उनकी विशेष रूप से घात ही करनी चाहिए । जो व्यक्ति परस्पर भय एवं लज्जा को प्रतिलेखन- विशेष रूप से देख कर पाप कर्म नहीं करता है, तो क्या यह भी मुनित्व का कारण है?
हिन्दी - विवेचन
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प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि मुनि संधि का परिज्ञाता हो । संधि शब्द का सामान्य रूप से जोड़ना अर्थ होता है । संधि भी दो प्रकार की मानी गई है - 1 - द्रव्य सन्धि और 2 - भाव सन्धि ।
दीवार आदि में छिद्र का होना द्रव्य सन्धि कहलाता है और कर्म विवर को भाव सन्धि कहते हैं। भाव सन्धि भी तीन प्रकार की है - 1 - सम्यग्दर्शन, 2 - सम्यग्ज्ञान और 3 – सम्यक्चारित्र की प्राप्ति ।
1- उदय में आए हुए दर्शनमोहनीय कर्म क्षय या क्षयोपशम और शेष का उपशमन करके सम्यक्त्व को प्राप्त करना भी भाव सन्धि है । इससे मिथ्यात्व का छिद्र रुक जाता है।
2 - ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम करने से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है । .