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तृतीय अध्ययन : शीतोष्णीय
तृतीय उद्देशक
द्वितीय उद्देशक में कष्टसहिष्णुता का उपदेश दिया गया है । साधु को कठिन परीषह उत्पन्न होने पर भी घबराना नहीं चाहिए और कष्ट से विचलित होकर प्राणियों की हिंसा एवं अन्य पाप कार्य भी नहीं करने चाहिए । अहिंसा की इस विराट् भावना को जीवन में साकार रूप देने के लिए आत्मदृष्टि को विशाल बनाने की आवश्यकता है। अपने अन्दर समस्त प्राणियों के हित एवं उनके सुख का साक्षात्कार करना ज़रूरी है । जो व्यक्ति समस्त प्राणियों की आत्मा को अपनी आत्मा के समान देखता है और यह समझता है कि सभी प्राणी जीना चाहते हैं, सुख चाहते हैं, व्याघात एवं दुःखों से बचना चाहते हैं, वही व्यक्ति हिंसा आदि दोषों से मुक्त - विमुक्त हो सकता है।
अतः हिंसा आदि दोषों से बचने के लिए आत्मद्रष्टा बनना चाहिए, क्योंकि आत्मा ही हमारे दुःख-सुख का, मुक्ति- बन्धन का आधार है। वस्तुतः देखा जाए तो आत्मा ही हमारा मित्र है और शत्रु भी वही हो जाता है । अतः जीवनविकास के लिए सहयोगी मित्रों को बाहर ढूंढ़ने की आवश्यकता नहीं है । मैत्री का वह अनन्त सागर अपने अन्दर ही लहर-लहर कर लहरा रहा है । उसका साक्षात्कार करने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि हम अन्तर्द्रष्टा बनें। यही बात प्रस्तुत उद्देशक में बताई गई है। इसका प्रारम्भ करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - संधिं लोयस्स जाणित्ता, आयओ बहिया पास, तम्हा न हंता न विघायए, जमिणं अन्नमन्नवितिगिच्छाए पडिलेहाए न करेइ पावं कम्मं, किं तत्थ मुणी कारणं सिया ? | 116॥
छाया - संधिं लोकस्य ज्ञात्वा आत्मनः बहिः पश्य ! तस्मान्न हन्ता न व्यापादकः (न विघातयेत्) यदिदं अन्योन्यस्य विचिकित्सया प्रत्युपेक्ष्य न करोति पापं कर्म, किं तत्र मुनिः कारणं स्यात् ?