________________
500
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
हिन्दी-विवेचन
क्रोध, मान, माया और लोभ आत्मा को संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं। इसलिए इन्हें कषाय कहा गया है। कषाय शब्द कषुआय से बना है 'कष' का अर्थ है-संसार और आय का अर्थ है-लाभ। जिस क्रिया से संसार की अभिवृद्धि हो, उसे कषाय कहते हैं और यह उपर्युक्त चार प्रकार की हैं, इसलिए जनसाधारण की भाषा में इसे चांडाल-चौकड़ी भी कहते हैं। ये कषाय मोह कर्म के उदय का परिणाम हैं और सब कर्मों में मोह कर्म को प्रधान माना गया है। अतः साधक को सबसे पहले कषायों का नाश करना चाहिए; क्योंकि ये नरक एवं महादुःखों का कारण हैं। इसलिए साधक को कर्म आगमन के भाव स्रोत को नष्ट कर देना चाहिए।
प्रस्तुत सूत्र में लोभ को स्पष्ट रूप से नरक का कारण बताया है; क्योंकि लोभ समस्त गुणों का विनाशक है और छद्मस्थ अवस्था के अन्तिम चरण तक उसका अस्तित्व रहता है। उसका क्षय करने पर ही आत्मा लघुभूत होता है और सर्व घातिकर्मों को क्षय कर शेष कर्मों का आत्यान्तिक क्षय करने की ओर बढ़ता है और आयुकर्म के क्षय के साथ समस्त कर्मों का क्षय करके निर्वाण पद को प्राप्त कर लेता है।
इसलिए हे आर्य! द्रव्य एवं भाव ग्रंथि-गांठ को जानकर और शोक एवं दुःख के कारण का परिज्ञान करके संयम मार्ग में प्रवृत्त होना चाहिए, परिग्रह एवं वासना में गम्यमान इन्द्रियों एवं मन का दमन करना चाहिए; उसे उस मार्ग से हटाकर साधना में संलग्न करना चाहिए। इस प्रकार संसार के स्वरूप का भली-भांति अवलोकन कर के उससे पार होने का प्रयत्न करना चाहिए।
संसार से पार होने का साधन मनुष्य जन्म में ही मिल सकता है। इस मानव शरीर के द्वारा ही आत्मा सर्व बन्धनों से मुक्त हो सकता है। अतः ऐसे श्रेष्ठ साधन मानव जीवन को प्राप्त करके साधक को फिर से संसार बढ़ाने के साधन-हिंसा आदि में प्रवृत्त न होकर, आरम्भ-समारम्भ एवं दोषजन्य प्रवृत्ति का त्याग करके संयम-साधना में प्रवृत्त होना चाहिए।
'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्वोक्त समझें।
॥ द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥