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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
आपको संभालने के बाद वह पतन के गर्त से बाहर निकल कर विकास के पथ की ओर बढ़ सकती है; अपना उत्थान कर सकती है। वह भी सिद्धत्व को प्राप्त कर सकती है। बस, आवश्यकता इस बात की है कि वह दोषों को दोष समझकर उनका परित्याग कर दे; अपने मन-वचन एवं शरीर को पाप चिन्तन; पाप कथन एवं पाप आचरण से हटा ले। इस प्रकार विचार एवं आचार में परिवर्तन होते ही जीवन बदल जाता है, मनुष्य पापी से धर्मात्मा बन जाता है। इसी अपेक्षा से कहा गया है कि मनुष्य को पापी से नहीं पापों से घृणा करनी चाहिए और पापों का ही तिरस्कार करना चाहिए; क्योंकि आज जो पापी है, आने वाले कल को धर्मात्मा भी बन सकता है। इसलिए बुरे एवं अच्छे का आधार व्यक्ति नहीं, आचरण है। .
प्रस्तुत सूत्र में भी यह बताया गया है कि कई लोभ वश पाप कर्म में प्रवृत्त होते हैं, दोषों का आसेवन करते हैं; परन्तु उसी जीवन में जागृत होकर उनका परित्याग करते हैं और फिर उन परित्यक्त भोगों एवं दोषों की ओर घूमकर भी नहीं देखते क्योंकि वे उनके वास्तविक स्वरूप से परिचित हो चुके हैं। उन्होंने यह जान लिया है कि ये भोग-विलास दुःख के कारण हैं और अस्थायी हैं। यहां तक कि.देवों के भोग विलास भी स्थायी नहीं हैं। वे भी मृत्यु की चपेट में आकर अपनी स्थिति से गिर जाते हैं।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि वैषयिक सुख स्थिर नहीं है। ऐश्वर्य एवं भोगों की दृष्टि से देव मनुष्य से अधिक संपन्न है। सामान्य देवों की भौतिक सम्पत्ति के समक्ष करोड़ अरबपति का वैभव भी तुच्छ-सा प्रतीत होता है। ऐसे महाऋद्धि वाले एवं ऐश्वर्य सम्पन्न देवों के सुख भी सदा नहीं रहते; कर्म उन्हें भी आ घेरते हैं तो मनुष्य के लिए अभिमान करने जैसी बात ही क्या है? इस प्रकार भोगों की असारता, अस्थिरता एवं पूर्ति न होना तथा उनके दुःखद परिणाम को जानकर मुमुक्षु पुरुष विषय-भोगों में आसक्त नहीं होते और वासना के साधन स्त्री-पुरुष-संयोग से सदा दूर रहते हैं।
इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- कोहाइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे निरयं महतं। तम्हा य वीरे विरए वहाओ, छिंदिज्ज सोयं
लहुभूयगामी॥7॥