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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
मूलम् - सच्चमि धिदं कुव्वहा, एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावं कम्मं झोसइ॥113॥
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छाया - सत्ये धृतिं कुरुध्वं अत्रोपरतो मेधावी सर्व पापं - कर्म झोषयति । पदार्थ-सच्चंमि-संयम में । धि - धृति । कुव्वहा - कर । एत्थोवरए-इस समय में जो उपरत है, वह । मेहावी - तत्त्वदर्शी । सव्वं - सभी । पावं कम्मं - पाप कर्म को । झोस - क्षय - नष्ट कर देता है ।
मूलार्थ - जो तत्त्वदर्शी पुरुष संयम में संलग्न है, वह समस्त पाप कर्म को क्षय कर देता है । अतः हे आर्य ! सत्य- संयम में धैर्य करो, अर्थात् धैर्य के साथ सत्यसंयम का परिपालन करो ।
हिन्दी - विवेचन
इस बात को हम देख चुके हैं कि हिंसा, असत्य, असंयम आदि दोषों से पाप कर्म का बन्ध होता है और संयम से पाप कर्म का प्रवाह रुकता है एवं उसके साथ सत्य एवं तप आदि सद्गुण होने से पूर्व बंधे हुए पाप कर्म का क्षय भी होता है। इस प्रकार संयम की साधना-आराधना से जीव कर्मों का आत्यांतिक क्षय कर देता है। इससे स्पष्ट हुआ कि संयम-साधना का फल निष्कर्म-कर्म रहित होता है।
‘एत्थोवरए' पद का अर्थ है - भगवान के वचनों पर विश्वास करके संयम में जो रत है - संलग्न है । और 'सव्वं पावं कम्मं झोसइ' का तात्पर्य है - समस्त अवशिष्ट पाप कर्मों का क्षय करना ' । अतः निष्कर्म बनने के लिए साधक को धैर्य के साथ सत्य- संयम का परिपालन करना चाहिए ।
जो संयम का परिपालन नहीं करते हैं, उन प्रमादी जीवों की स्थिति का चित्रण. करते हुए सूत्रकार कहते हैं
1. सच्चंसि - इति पाठान्तरम्
2. ‘अत्र' अस्मिन् संयमे भगवद् वचसि वा उप- सामीप्येन रतो- व्यवस्थितो । और, सर्व अशेषं पापं, कर्म, संसारार्णवपरिभ्रमणहेतुं झोषयति-शोषयति क्षयं नयतीति यावत् ।
— आचारांग वृत्ति