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तृतीय अध्ययन, उद्देशक 2 · मूलम्-अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरित्तए, से अण्णवहाए, अण्णपरियावाए, अण्णपरिग्गहाए जणवयवहाए, जणवयपरियावाए, जणवयपरिग्गहाए॥114॥ __ छाया अनेक चित्तः खलु अयं पुरुषः स केतनमर्हति पूरयितुं सोऽन्यवधाय, अन्यपरितापाय, अन्यपरिग्रहाय, जनपदवधाय, जनपदपरितापाय, जनपदपरिग्रहाय (जनपदपरिवादाय)।
पदार्थ-खलु-अवधारण अर्थ में है। अयं अणेग चित्ते-यह अनेक चित्त वाला। पुरिसे-पुरुष। से केयणं-वह लोभ रूप घर को। पूरित्तए-भरने की। अरिहए-इच्छा करता है। से-वह लोभ पूर्ति के लिए। अण्णवहाए-अन्य जीवों का वध करता है। अण्णपरियावाए-अन्य प्राणियों को परिताप देता है। अण्णपरिग्गहाए-अन्य द्विपद-चतुष्पद आदि प्राणियों को अपने अधीन करता है। जणवयवहाए-जनपद का संहार करने के लिए प्रवृत्त होता है। जणवयपरिग्गहाएजनपद को अपने अधीन बनाने का प्रयत्न करता है।
मूलार्थ-अनेक चित्त वाला पुरुष अपनी अतृप्त तृष्णा को पूरी करने की आकांक्षा रखता है और इसके लिए वह अन्य जीवों एवं जनपद का वध करने, उन्हें परिताप देने एवं उन्हें अपने अधीन बनाने के लिए प्रवृत्त होता है। हिन्दी-विवेचन · कषाय आत्मगुणों के नाशक हैं। क्रोध प्रेम का, मान विनय का, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सभी गुणों का विनाश करता है। क्रोधादि एक-एक आत्मगुण के नाशक हैं; परन्तु लोभ इतना भयंकर शत्रु है कि वह गुण मात्र को नष्ट कर देता है। लोभ के नशे में मनुष्य इतना बेईमान हो जाता है कि वह अच्छे-बुरे कार्य का भेद ही नहीं कर पाता। वह न करने योग्य कार्य भी कर बैठता है। लोभी मनुष्य अपनी अनन्त तृष्णा के गढ़े को भरने के लिए रात-दिन दुष्प्रवृत्तियों में लगा रहता है।
स्वाद एवं धन के लोभ से मनुष्य अनेक पशु-पक्षी एवं मनुष्यों तक की हिंसा करते हुए संकोच नहीं करता। आज देश में बढ़ती हुई हिंसा मनुष्यों के लोभ का ही परिणाम है। जिह्वा के स्वाद के लिए भी हिंसा होती है; परन्तु इसके अतिरिक्त करोड़ों