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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
क्रिया नहीं लगती, छठे गुणस्थान में परिग्रह की क्रिया नहीं लगती, और वीतराग गुणस्थान में केवल इरियावहिया क्रिया लगती है और अयोगीगुणस्थान में कोई क्रिया नहीं लगती। इससे स्पष्ट है कि पाप कर्म का बन्ध छठे गुणस्थान में रुकता हैं। उक्त गुणस्थान में अप्रत्याख्यान एवं परिग्रह-आसक्ति का अभाव रहता है। परन्तु पांचवें गुणस्थान में पदार्थों के प्रति आसक्ति का पूर्ण त्याग नहीं होता है और चौथे गुणस्थान में जीव आसक्ति को त्याज्य समझता है, परन्तु वह उसका आंशिक त्याग भी नहीं कर सकता। इसलिए चौथे एवं पांचवें गुणस्थान में रहा हुआ जीव आरम्भ-परिग्रह से सर्वथा निवृत्त नहीं होता। परन्तु उसकी भावना निवृत्त होने की रहती है और विवशतावश वह उसमें प्रवृत्त होता है। इसलिए यह कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि जीव पाप कर्म में प्रवृत्ति नहीं करता है।
निष्कर्ष यह निकला कि दुःखों से बचने के लिए ज्ञान का होना जरूरी है। प्रबुद्ध-ज्ञानी पुरुष ही पापों से बच सकता है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि “भूएहिं जाणे पडिलेह सायं" इसका तात्पर्य यह है कि जो यथार्थ ज्ञान के द्वारा मोक्ष के स्वरूप को जानकर उसे प्राप्त करने की साधना में संलग्न रहता है, वह पाप कर्म में प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि वह पाप कर्म के दुष्फल-दुःखद परिणाम से परिचित होता है।
इससे स्पष्ट होता है कि सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर साधक अपने आपको सदा पाप कर्म से निवृत्त करने का प्रयत्न करता है। वह पाप कर्म के दुखद परिणामों को जानकर उनसे बचने के लिए धर्म का आचरण करता है, संयम साधना में संलग्न होता है। यों कहना चाहिए कि सम्यग्दृष्टि आत्माभिमुखी होता है। वह अपनी आत्मा को भूलाकर कोई कार्य नहीं करता। ___ पाप कर्म की उत्पत्ति का कारण राग-स्नेह है। इसके वशीभूत होकर मनुष्य विभिन्न दुष्कर्मों में प्रवृत्त होता है। अतः मुमुक्षु को राग भाव का त्याग करना चाहिए। इसी बात का उपदेश देते हुए सूत्रकार कहते हैं
1. भूताभि-चतुर्दशभूतग्रामास्तैः सममात्मनःसातं-सुखं प्रत्युपेक्ष्य पर्यलोच्य जानीहि, तथाहि
यथा त्वं सुखप्रिय एवमन्येऽपीति, यथा च त्वं दुखद्विडेवमन्येऽपि जन्तवः, एवं मत्वाऽन्येषामसातोत्पादनं न विदध्याः।
-आचारांग वृत्ति