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तृतीय अध्ययन, उद्देशक 2
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हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में इस बात पर जोर दिया गया है कि साधक सबसे पहले जन्म-जरा एवं मृत्यु के स्वरूप तथा जीवों के स्वभाव को जाने। इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि जन्म-जरा एवं मरण कर्म जन्य हैं और आरम्भ हिंसा आदि दोषों को सेवन करने से कर्म का बन्ध होता है। क्योंकि हिंसा से दूसरे प्राणियों को कष्ट होता है, दुःख होता है और कोई भी प्राणी दुःख नहीं चाहता। कारण कि जीव स्वभाव से सुखाभिलाषी है। सभी प्राणी सुख चाहते हैं। अतः उन्हें कष्ट देना, परिताप देना, पीड़ा पहुंचाना पाप है। इससे कर्म का बन्ध होता है और परिणामस्वरूप जीव जन्म-मरण के प्रवाह में प्रवहमान होता है तथा विभिन्न दुःखों का संवेदन करता है।
अतः जन्म-जरा के स्वरूप एवं जीवों के स्वभाव का ज्ञाता प्रबुद्ध पुरुष आरंभ-समारंभ से बचने का प्रयत्न करता है। सम्यग्दृष्टि पाप कर्म में प्रवृत्त नहीं होता है। इससे स्पष्ट है कि पाप कर्म में आसक्ति तब तक रहती है, जब तक आत्मा में सद्ज्ञान की ज्योति नहीं जगती। अतः पाप का कारण अज्ञान है। यह ठीक है कि ज्ञान की प्राप्ति होने के बाद आरम्भ होता है, परन्तु अज्ञान दशा में की जाने वाली प्रवृत्ति एवं ज्ञान पूर्वक होने वाली प्रवृत्ति में रात-दिन का अन्तर है। मिथ्यादृष्टि आरंभ-समारंभ में संलग्न रहता है, आसक्त रहता है और हार्दिक इच्छा पूर्वक उसमें प्रवृत्ति करता है, परन्तु सम्यग्दृष्टि उसमें आसक्त नहीं बनता, वह परिस्थितिवश उसमें प्रवृत्त होता है; फिर भी वह भावना से उस कार्य को त्याज्य ही समझता है। . कुछ लोग इसका यह अर्थ करते हैं कि सम्यग्दृष्टि को पाप कर्म नहीं लगता, परन्तु यह अर्थ सामान्य सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा घटित नहीं होता। छठे गुणस्थान की अपेक्षा से यह कथन उचित है कि उक्त गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि जीव को पाप कर्म नहीं लगता। परन्तु उसके नीचे के गुणस्थानों के लिए यह कथन ठीक नहीं है। इसके लिए हम यहां थोड़ा-सा गुणस्थान के विकासक्रम पर भी सोच लें तो यह विषय बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा। ___चौथे गुणस्थान से जीवन विकास आरम्भ होता है। इस गुणस्थान को स्पर्श करते ही मिथ्यादर्शन की क्रिया रुक जाती है। पांचवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यान की