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. श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
संसार में नहीं आता। इससे यह स्पष्ट कर दिया है कि कर्म बन्धन से मुक्त आत्मा फिर से संसार में अवतरित नहीं होती? कर्म युक्त आत्मा ही जन्म-मरण के प्रवाह में बहती रहती है। कर्म रहित आत्मा जन्म-ग्रहण नहीं करती है, क्योंकि जन्म-मरण का मूल कारण कर्म है और सिद्ध अवस्था में कर्म का सर्वथा अभाव है। इसलिए परमात्मा या ईश्वर के अवतरित होने की कल्पना नितांत असत्य एवं कपोल कल्पित प्रतीत होती है। वस्तुतः कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने पर आत्मा अपने विशुद्ध स्वरूप में रमण करती है, फिर वह संसार में नहीं भटकती है।
अतः मुमुक्षु को कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियों को सर्वथा क्षय करने का प्रयत्न करना चाहिए। इस बात का उपदेश देते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-कम्म मूलं च जं छणं, पडिलेहिय सव्वं समायाय दोहिं अन्तेहिं अदिस्समाणे तं परिन्नाय मेहावी विइत्ता लोगं वंता लोगसन्नं से मेहावी परिक्कमिज्जासि, त्तिबेमि॥111॥
छाया-कर्ममूलं च यत् क्षणं प्रत्युपेक्ष्य सर्वं समादाय द्वाभ्यामन्ताभ्यामदृश्यमानः तं परिज्ञाय मेधाविन् ! विदित्वा लोकं वान्त्या लोकसंज्ञां स मेधावी परिक्रमेत्-पराक्रमेत् इति ब्रवीमि। __पदार्थ-कम्ममूलं-कर्म मल को। पडिलेहिय-प्रत्युपेक्षण कर। च-समुच्चय अर्थ में है, तथा। जं छणं-जो हिंसा है वही कर्म मूल है, उसको छोड़ देवे। सव्वंसर्व। समायाय-उपदेश पूर्व 5 संयम ग्रहण करके। दोहिंअंतेहिं-दोनों से-राग
और द्वेष से आत्मा को पृथक् करके तथा राग और द्वेष को। अदिस्समाणे-अदृश्यमान करता हुआ। तं-उस कर्म के कारणों को। परिन्नाय-ज्ञपरिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग कर। मेहावी-बुद्धिमान। लोगं-विषय कषाय रूप . लोक को। विइत्ता-जानकर अतः। वंता-छोड़कर। लोगसन्नं-लोक संज्ञा को। से-वह। मेहावी-मर्यादावर्ती बुद्धिमान पुरुष। परिक्कमिज्जासि-संयमानुष्ठान में पराक्रम करे। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। '
मूलार्थ-प्रबुद्ध पुरुष का कर्त्तव्य है कि वह हिंसा आदि दोषों को कर्म का मूल
1. न विद्यते कर्माष्टप्रकारमस्येत्यकर्मा तस्य व्यवहारो न विद्यते। -आचारांग वृत्तिः।