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तृतीय अध्ययन, उद्देशक 1
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प्रकार व्यक्ति शब्दादि विषयों में आसक्त होकर हिंसा आदि दोषों में प्रवृत्त होकर जन्म, जरा और मृत्यु के प्रवाह में बहता रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंसा जन्य प्रवृत्ति में प्रवर्त्तमान व्यक्ति दुःखों के महागर्त में जा गिरता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि समस्त दुःखों का मूल स्रोत हिंसाजन्य प्रवृत्ति है। हम यों भी कह सकते हैं कि जो व्यक्ति संयम से विमुख है, शब्दादि विषयों में आसक्त है; वह आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त होकर पाप कर्मों का बन्ध करता है और परिणामस्वरूप विभिन्न योनियों में जन्म-जरा और मरण को प्राप्त करता है। ___ इसके विपरीत जो व्यक्ति अप्रमत्त है; जागरणशील है, विवेकशील है, संयम-असंयम का परिज्ञाता है, वह आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त नहीं होता। उसकी प्रत्येक क्रिया संयम से युक्त होती है और वह प्रतिक्षण जागरूक रहता है, विवेक के साथ साधना में प्रवृत्त होता है, अतः वह पाप कर्म का बन्ध नहीं करता। परन्तु संयम एवं तप के द्वारा नए कर्मों के आगमन को रोकता है और पुरातन आबद्ध कर्मों की निर्जरा करता रहता है। इस प्रकार वह एक दिन कर्म बन्धनों से सर्वथा मुक्त-उन्मुक्त होकर अपने साध्य को सिद्ध कर लेता है, अपने लक्ष्य पर जा पहुंचता है। अतः मुमुक्षु का कर्त्तव्य है कि असंयम से निवृत्त होकर संयम में प्रवृत्ति करे।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'जे पज्जवजायसत्थस्स खेयन्ने' का अर्थ है-जो व्यक्ति शब्दादि विषयों की आकांक्षा की पूर्ति के लिए की जाने वाली क्रियाओं एवं उसके परिणाम का ज्ञाता है, वही विशुद्ध संयम का परिज्ञाता हो सकता है। सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र का हेतु-हेतुमद्भाव से वर्णन किया है, अर्थात् जो व्यक्ति संसार-परिभ्रमण के कारणों का परिज्ञाता है, वह मोक्ष पथ का भी ज्ञाता हो सकता है।
‘अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ' का अर्थ है-मोक्ष-मार्ग पर गतिशील साधक समस्त कर्म बन्धनों को तोड़ देता है और वह आठ कर्मों से मुक्त व्यक्ति फिर से 1. शब्दादीनां विषयाणां पर्यवाः-विशेषास्तेषु-तन्निमित्तं जातं शस्त्रं पर्यवजात शस्त्रं
शब्दादिविशेषोपादानाय यत्प्राण्युपघातकार्यानुष्ठानं तत्पर्यवजातशस्त्रं तस्यपर्यवजातशस्त्रस्य यः खेदज्ञो-निपुणः सोऽशस्त्रस्य निरवद्यानुष्ठानरूपस्य संयमस्य खेदज्ञः यश्चाशस्त्रस्य संयमस्य खेदज्ञः स पर्यवजात्-शस्त्रस्यापि खेदज्ञः, इत्यादि। -आचारांग वृत्ति