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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
उवेहमाणो-रागद्वेष न करता हुआ। उज्जू-ऋजुमति होता है। माराभिसंकी-मरण से उद्विग्नचित्त वाला। मरणापमुच्चइ-मरण से विमुक्त हो जाता है। कामेहि-काम-भोगों से। अप्पमत्तो-अप्रमत है और। पावकम्मेहं-पाप कर्मों से। उवरओ-उपरत है। वीरे-वह वीर। आयगुत्ते-आत्मगुप्त है। खेयन्ने-खेदज्ञ है। जे–जो। पज्जवजाय सत्थस्स-शब्दादिविषयों की प्राप्ति के लिए जो हिंसादि क्रियाएं की जाती हैं, जो उनका। खेयन्ने-खेदज्ञ है। से-वह। असत्थस्स-संयम का। खेयन्ने-खेदज्ञ है। जे-जो। असत्थस्स-समय का। खेयन्ने-खेदज्ञ-जानने वाला है। से-वह। पज्जवजायसंस्थस्स-पर्यवजात शस्त्र का। खेयन्ने-खेदज्ञ है
और फिर। अकम्मस्स-कर्म रहित का संसार चक्र में। ववहारो-व्यवहार। न विज्जइ-नहीं है। उवाही-संसार भ्रमण रूप उपाधि। कम्मुणा-कर्म से। जायइ-उत्पन्न होती है अतः। च-फिर। कम्म-कर्म को। पडिलेहाए-विचार कर-भावनिद्रा को छोड़ जाग्रत अवस्था में ही सदा रहना चाहिए।
मूलार्थ-दुःखित प्राणियों को देखकर सदा अप्रमत्त भाव से ही संयम मार्ग में विचरे, हे बुद्धिमान् ! आरम्भ-हिंसा से यह दुःख उत्पन्न हुआ है, इस प्रकार मानकर फिर छल-कपट करने वाला प्रमादी जीव गर्भ में पुनः-पुनः आता है। अपितु जो शब्दादि विषयों में राग और द्वेष न करता हुआ ऋजुमति और मरणजन्य दुःख से उद्विग्न चित्तवाला है, वह मरण के दुःख से छूट जाता है तथा जो काम-भोगों में अप्रमत्त-प्रमाद-रहित एवं पापकर्मों से उपरत-रहित है, वह वीर आत्मगुप्त और खेदज्ञ है, निपुण है, तथा जो हिंसादि क्रियाओं का खेदज्ञ-जानकार है, वह संयम का खेदज्ञ जानने वाला है और जो संयम का जानकार है, अर्थात् संयम के स्वरूप को जानता है, वह हिंसादि क्रियाओं के स्वरूप को जानता है। किन्तु कर्म रहित आत्मा का संसारचक्र में व्यवहार-परिभ्रमण नहीं होता, संसार-चक्र की उपाधि कर्मजन्य है, कर्म से उत्पन्न होती है, अतः कर्म के यथार्थ स्वरूप का पर्यालोचन करके मुमुक्षु पुरुष को संयम मार्ग में ही यतना पूर्वक विचरना चाहिए। हिन्दी-विवेचन ___संसार-परिभ्रमण का मूल कारण राग-द्वेष-जन्य प्रवृत्ति है। प्रमादी व्यक्ति कषायों के वश होकर आरम्भ-हिंसा करता है और परिणामस्वरूप अशुभ कर्मों का बन्ध करके नरक, तिर्यंच आदि गतियों में अनेक प्रकार के दुःखों का संवेदन करता है। इस