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तृतीय अध्ययन, उद्देशक 1
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जानकर और भगवान के उपदेश को जीवन में ग्रहण करके राग-द्वेष से निवृत्त होता हुआ कर्मों को क्षय करने का प्रयत्न करे और मर्यादा का परिपालन करता हुआ संयम में पुरुषार्थ करे। ऐसा मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन ____ कर्म बन्ध के मूल कारण पांच हैं-1. मिथ्यात्व, 2. अव्रत, 3. कषाय, 4. प्रमाद और 5. योग। इनके कारण ही जीव संसार में परिभ्रमण करता है। इस बात को जिनेश्वर भगवान ने अपने उपदेश में स्पष्ट कर दिया है और उससे मुक्त होने का • मार्ग भी बताया है। अतः भगवान के उपदेश को हृदयंगम करके मुमुक्षु पुरुष को उसके अनुरूप आचरण करना चाहिए। संसार के वास्तविक स्वरूप को समझकर राग-द्वेष से निवृत्त होने का प्रयत्न करना चाहिए।
राग-द्वेष कर्म बन्ध के बीज हैं । इसलिए मुख्य रूप से इनके त्याग का उपदेश दिया गया है। जो व्यक्ति राग-द्वेष का परित्याग कर देता है, उनका सर्वथा उन्मूलन कर देता है, फिर वह कर्म बन्धन से नहीं बन्धता है और परिणामस्वरूप जन्म-मरण आदि समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है।
प्रस्तुत सूत्र में 'अंत' शब्द राग-द्वेष के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अतः बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि वह सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का आराधन करके आत्मा को कर्ममल से मुक्त बनाने का प्रयत्न करे। _. यहां ‘मेधावी' शब्द का दो बार प्रयोग हुआ है। इसका तात्पर्य यह है कि जो 'पुरुष मर्यादा में स्थित रहता है, वही आत्म विकास कर सकता है, संयम में प्रवृत्त हो सकता है। अतः ऐसा व्यक्ति ही वास्तव में पंडित एवं बुद्धिमान होता है।
'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझना चाहिए।
॥ प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
1. रागो य दोसो वि य कम्मबीयं। .
-उत्तराध्ययन सूत्र-32 2. अन्तहेतुत्वादन्तौ-राग-द्वेषौ ताभ्यां सहादृश्यमानः ताभ्यामनपदिश्यमानो वा तत्कर्मेति।
-आचारांग वृत्तिः