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________________ 474 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध के स्वरूप का ज्ञाता सरल आत्मा संसार-चक्र एवं विषयाभिलाषा के सम्बन्ध को भली-भांति जानता है। हिन्दी-विवेचन साधना के क्षेत्र में सबसे पहले ज्ञान की आवश्यकता होती है। जब तक साधक को अपनी आत्मा का, लोक-परलोक का बोध नहीं है, जीव-अजीव की पहचान नहीं है, तब तक वह संयम में प्रवृत्त नहीं हो सकता। संयम का अर्थ है-दोषों से निवृत्त होना। अतः दोषों से निवृत्त होने के लिए यह जानना आवश्यक है कि दोष क्या है? कौन-सी प्रवृत्ति दोषमय और कौन-सी निर्दोष प्रवृत्ति है? इसलिए आगम में स्पष्ट भाषा में कहा गया है कि साधक पहले ज्ञान प्राप्त करे, फिर क्रिया में प्रवृत्ति करे। - प्रस्तुत सूत्र में भी मुनि जीवन का वास्तविक स्वरूप बताया गया है। इसमें यह स्पष्ट कर दिया है कि वह ज्ञानवान हो, आत्म स्वरूप का, वेदों का, धर्म का, ब्रह्म स्वरूप का एवं मति-श्रुत आदि ज्ञान से लोक के स्वरूप का ज्ञाता हो। जो साधक इनके स्वरूप को नहीं जानता है, वह संयम का भली-भांति पालन नहीं कर सकता। अतः साधक के लिए सबसे पहले आत्मस्वरूप को जानना जरूरी है। जो साधक आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जान लेता है, वह सम्पूर्ण लोक के स्वरूप को जान सकता है। फिर उसके लिए वेद-आगम, ब्रह्म एवं लोक के स्वरूप का परिज्ञान करना कठिन नहीं रह जाता है और आत्मा एवं लोक के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान हो जाने पर उसकी साधना में, उसके आचरण में सहज ही गति एवं तेजस्विता आ जाती है। वह अपने आपको दोषों से बचाता चलता है। क्योंकि वह इस बात को भली-भांति जान चुका है कि इन दोषों में आसक्त होने के कारण ही आत्मा लोक में इधर-उधर भटकती फिरती है और विभिन्न योनियों में अनेक दुःखों का संवेदन करती है। इससे स्पष्ट हो गया कि दोषों से बचने के लिए पहले ज्ञान की आवश्यकता है। . प्रस्तुत सूत्र में आत्मज्ञान के बाद वेदवित् होने को कहा गया है। 'वेयवं' 'वेदवित्' का अर्थ है जिस साधन के द्वारा जीवाजीव आदि के स्वरूप को जाना . 1. पढमं नाणं तओ दया। -दशवैकालिक सूत्रः 4, 9
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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