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तृतीय अध्ययन, उद्देशक 1
का कारण है। मोह और अज्ञान के कारण ही जीव नरकादि योनियों में विभिन्न दुःखों का संवेदन करता है। इसलिए नरकादि में प्राप्त होने वाले दुःखों को अहितप्रद कहा है । अतः इन दुःखों से छूटने का उपाय है - अज्ञान एवं मोह का त्याग करना ।
'अभिसमन्नागया' का अर्थ है - जिस आत्मा ने शब्दादि विषयों के स्वरूप को जान लिया है और उनमें उसकी राग-द्वेष मय प्रवृत्ति नहीं है, वही मुनि है और उसी ने लोक के स्वरूप को जाना है ' ।
जो प्रबुद्ध पुरुष शब्दादि विषयों के परिणाम को जानकर उनका परित्याग कर देते हैं, उन्हें किस गुण की प्राप्ति होती है । इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - से आयवं नाणवं वेयवं धम्मवं बंभवं पन्नाणेहिं परियाणइ लोयं, मुणीति वुच्चे, धम्मविऊ उज्जू, आवट्टसोए संगमभिजाण ॥108 |
छाया-स आत्मवान् (आत्मवित्) ज्ञानवान् (ज्ञानवित्), वेदवान् (वेदवित्), धर्मवान् (धर्मवित्), ब्रह्मवान् (ब्रह्मवित्), प्रज्ञानैः परिजानाति लोकं मुनिः इति वाच्यः धर्मवित् ऋजु आवर्त्त स्रोतसि संगमभिजानाति ।
पदार्थ - से - वह मुमुक्षु पुरुष । आयवं - आत्मवान् । नाणवं - ज्ञानवान् । वेयवं-वेदवित्-आगमों का परिज्ञाता | धम्मवं - धर्म स्वरूप का ज्ञाता । बंभवं - ब्रह्म को जानने वाला । पन्नाणेहिं -मति - श्रुत ज्ञान आदि से । लोयं - लोक के स्वरूप को। परियाणइ–जानता है । मुणीतिवच्चे - उसे मुनि कहते हैं, क्योंकि । धम्मविऊ-धर्म के स्वरूप का परिज्ञाता । उज्जू-सरल आत्मा । आवट्ट सोए- संसार चक्र और विषयाभिलाषा के । संगं - सम्बन्ध को । अभिजाणइ - जानता है ।
मूलार्थ -
- वह प्रबुद्ध पुरुष आत्मा स्वरूप को जानता है, ज्ञानयुक्त है, वेद-आगमों का ज्ञाता है, धर्म को जानने वाला है, ब्रह्म को जानने वाला है, मति-श्रुत आदि ज्ञानों से लोक के स्वरूप को जानता है, अतः उसे मुनि कहते हैं। क्योंकि वह धर्म
1. ‘अभिसमन्वागता' इति अभिः - आभिमुख्येन सम्यग् - इष्टानिष्टावधारणतयाऽ अन्विति–शब्दादिस्वरूपावगमात् पश्चादागताः-ज्ञाताः परिच्छिन्ना यस्य मुनेर्भवन्ति स लोकं जानातीति सम्बन्धः । - आचारांग वृत्तिः