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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध छाया-लोके जानीहि अहिताय दुःखं, समयं लोकस्य ज्ञात्वा अत्र शस्त्रोपरतः, यस्य इमे शब्दाश्च, रूपाश्च, रसाश्च गन्धाश्च, स्पर्शाश्च अभिसमन्वागताः भवन्ति । 472 पदार्थ-जाण–हे शिष्य! तू यह समझ कि । लोयंसि - लोक में । दुक्ख - दुःख । अहियाय-अहितकर है। लोगस्स समयं - लोक के संयमानुष्ठान को । जाणित्ता - जानकर । जस्सिमे - जिस मुनि को, ये । सद्दा - शब्द | य - और। रूवा - रूप । य-और । रसा-रस । य-और। गंधा- गंध। य-और। फासा - स्पर्श । य- समुच्चय अर्थ में। अभिसमन्नागया - अभिसमन्वागत । भवंति - होते हैं, वह । इत्थ - इस लोक में । सत्थोवरए - शस्त्र से उपरत होता है । मूलार्थ - हे शिष्य ! तू यह जान कि लोक में दुःख अहितकर है। इसलिए लोक में संयमानुष्ठान एवं समभाव को जान कर शस्त्र का त्याग कर दे । जिस मुनि के शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श अभिसमन्वागत होते हैं, वास्तव में वही शस्त्रों से उपरत होता है या वही मुनि है । हिन्दी - विवेचन अज्ञान एवं मोह आदि से पाप कर्म का बन्ध होता है और अशुभ कर्म का फल दुःख रूप में प्राप्त होता है। इस प्रकार सूत्रकार ने अज्ञान को दुःख का कारण बताया है और ज्ञान को दुःख से मुक्त होने का कारण कहा है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में इस बात पर जोर दिया गया है कि साधक को संयम एवं आचार के स्वरूप को जानकर उसका परिपालन करना चाहिए और शब्दादि विषयों राग-द्वेष मूलक प्रवृत्ति से निवृत्त होकर छह काय की हिंसा रूप शस्त्र का त्याग कर देना चाहिए, वास्तव में विषय में राग-द्वेष एवं हिंसा जन्य शस्त्रों का परित्याग ही मुनित्व है । प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'समय' शब्द के दो अर्थ होते हैं- “समयः - आचारोऽनुष्ठानं तथा 2 समता - समशत्रु-मित्रतां समात्परतां वा' अर्थात् 'समय' शब्द आचार का भी परिबोधक है और इसका अर्थ यह भी होता है कि प्रत्येक प्राणी पर समभाव रखना । 'लोयंसि अहियाय दुक्खं' वाक्य का तात्पर्य यह है कि अज्ञान और मोह दुःख
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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