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तृतीय अध्ययन, उद्देशक 1 जाता है, उसे वेद कहते हैं। वह आचारांग आदि आगम हैं। अतः उनके परिज्ञाता को वेदवित् कहते हैं।
इसके बाद धर्म के स्वरूप को जानने का उल्लेख किया गया है। इसका कारण यह है कि आचारांग आदि आगम साहित्य के द्वारा ही धर्म का स्वरूप स्पष्ट होता है, इसलिए पहले श्रुत-साहित्य के अध्ययन का उल्लेख करके धर्म को जानने का विवेचन किया गया है।
आत्मस्वरूप, श्रुत एवं धर्म के स्वरूप को जानने के बाद ब्रह्म के स्वरूप का सुगमता से बोध हो सकता है। क्योंकि ब्रह्म-परमात्मा आत्मा से भिन्न नहीं है। जब आत्मा अपने समस्त कर्म आवरणों को सर्वथा हटा देती है, तो वह परमात्मा के पद को प्राप्त कर लेती है। इसी अर्थ में ब्रह्म शब्द का प्रयोग हुआ है और ब्रह्म शब्द से • 18 प्रकार के ब्रह्मचर्य को भी ग्रहण किया गया है। पहले अर्थ में परमात्मस्वरूप को स्वीकार किया है और दूसरे अर्थ में ब्रह्मचर्य का बोध कराया है।
'प्रज्ञान' शब्द से मति-श्रुत आदि ज्ञान समझने चाहिए। क्योंकि मति-श्रुत आदि ज्ञान से ही लोक के स्वरूप का बोध होता है और इसी ज्ञान के द्वारा साधक संसार परिभ्रमण एवं विषयाभिलाषा के संबन्ध को जान लेता है। 'आवट्टसोए संगमभिजाणइ' में 'संग' शब्द संबन्ध का परिचायक है। शास्त्रों में संसार परिभ्रमण एवं विषयाभिलाषा का स्थायी संबन्ध माना गया है। जब तक विषयाभिलाषा है, तब तक संसार परिभ्रमण है। क्योंकि जहां राग-द्वेष की प्रवृत्ति है, वहीं जन्म-मरण की परम्परा का पोषण होता है, संसार का संवर्द्धन होता है। अतः संसार-परिभ्रमण से छुटकारा पाने के लिए राग-द्वेष का संग छोड़ देना चाहिए।
इस प्रकार आत्मा आदि का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके संयम मार्ग पर गतिशील साधक सुषुप्ति-भाव निद्रा का त्याग करके अपनी साधना में सदा सजग रहता है। क्योंकि जागरणशील साधक ही राग-द्वेष से बच सकता है। इसलिए सुषुप्त एवं जागरण के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता ही अपने साध्य को सिद्ध कर सकता है। अतः
1. वेद्यते जीवादि स्वरूपम् अनेनेति वेद:-आचाराद्यागमः तं वेत्तीत्ति वेदवित् ।
-आचारांग वृत्तिः 2. ब्रह्म-अशेषमलकलङ्कविकलं योगीशं वेत्तीति ब्रह्मवित्। -आचारांग वृत्तिः 3. यदिवधा अष्टादशा अमेति।
-आचारांग वृत्तिः