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- यह ठीक है कि नन्दी एवं समवायांग सूत्र में जो आचारांग के अध्ययनों, उद्देशों एवं पदों की संख्या दी गई है, उसमें समग्र आचारांग का उल्लेख है। उसमें दोनों श्रुतस्कन्धों को विभक्त नहीं किया गया है। परन्तु इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उभय आगमों का यह वर्णन उस समय का है, जब आचारांग सूत्र से आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की पांचवीं-चूला (26वां अध्ययन) आयारपकप्प, जो आज निशीथ सूत्र के नाम से प्रसिद्ध है, अलग कर दी गई थी। आचारांग नियुक्ति में द्वितीय श्रुतस्कन्ध की पांचवीं चूला का नाम 'आयारपकप्प तथा निसीह' दिया हुआ है। अतः यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि समवायांग में दी गई संख्या, गणधर सुधर्मा स्वामी के समय की है। यह ठीक है कि समवायांग के सूत्रकार गणधर ही होते हैं, क्योंकि वह अंग शास्त्र है। परन्तु समवायांग स्थानांग में कुछ स्थल ऐसे भी हैं, जो स्पष्टतः प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। स्थानांग सूत्र में सात निह्नव का उल्लेख आता है। उसमें तीसरे अव्यक्तिक से लेकर सातवें अबद्धिक निह्नव भगवान महावीर के निर्वाण के 214 वर्ष बाद से लेकर 584 वर्ष बाद तक हुए हैं। सातवां अबद्धिक निह्नव भगवान महावीर के निर्वाण के 584 वर्ष पीछे हुआ है। फिर भी उसका स्थानांग सूत्र में उल्लेख मिलता है। परन्तु उसके बाद बोटिक निह्नव हुआ, वह भगवान महावीर के निर्वाण के 609 वर्ष पीछे हुआ, उसका इसमें उल्लेख नहीं है। इससे ऐसा लगता है कि वी. नि. सं. 980 में हुई बल्लभी वाचना में नया सूत्र नहीं जोड़ा गया। ____ इससे हम यह नहीं कह सकते कि आगम में मौलिकता है ही नहीं। उसमें बहुत कुछ मौलिक है और गणधर-कृत भी है। परन्तु आगमों का सूक्ष्म अवलोकन करने के बाद हम निश्चित रूप से ऐसा नहीं कह सकते कि इसमें उल्लिखित एक-एक शब्द वही है, जो भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट एवं गणधर सुधर्मा द्वारा ग्रथित है। उसमें कहीं-कहीं परिवर्तन भी हुआ है परन्तु फिर भी उसकी मौलिकता को कोई क्षति नहीं पहुंची है। स्थविरों ने जो कुछ जोड़ा है, वह भी एकदम निराधार नहीं कहा जा सकता, क्योंकि स्थविर भी 14 पूर्वधर थे और उनकी रचना का आधार भी वीतराग वाणी या तीर्थंकरों का उपदेश ही था। गणधरों ने भी तीर्थंकरों के अर्थ रूप प्रवचन को सूत्र-बद्ध किया है और स्थविरों ने भी जो कुछ रचना की है, वह पूर्यों में से लेकर या अंग
1. आचा. नि. 495-496