________________
46
भावों की गम्भीरता है और न सूत्र-शैली के ही दर्शन होते हैं। उसमें तो सरल भाषा एवं साधारण शैली में सीधे-सादे भावों की-आचार के नियमों की परिगणना करा दी है। इस कथन में कुछ तथ्य हैं कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध में भाषा, भाव और शैली में सरलता लाने का कारण यह रहा है कि साधारण साधक भी आचार की महत्ता को सरलता से समझ सके और उसे आचरण में उतार सके। हम भी इस बात को मानते हैं कि इसी उद्देश्य से प्रथम श्रुतस्कन्ध के साथ द्वितीय श्रुतस्कन्ध को सम्बद्ध किया गया है। परन्तु इसके लिए अभी खोज एवं चिन्तन करने की आवश्यकता है कि दोनों के कर्ता एक ही हैं या भिन्न व्यक्ति हैं। हमें ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों के कर्ता दो भिन्न व्यक्ति होने चाहिए। क्योंकि, प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा एवं भावों को समझने में जब कठिनाई उत्पन्न हुई होगी, तभी आचार्यों ने उसे दूर करने के लिए द्वितीय श्रुतस्कन्ध की रचना की होगी? आचारांग नियुक्तिकार ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि आचारचूलिकाओं के विषय को स्थविरों ने आचार में से ही लेकर शिष्यों के हितार्थ चूलिकाओं में प्रविभक्त किया है। ___भले ही द्वितीय श्रुतस्कंध को गणधर-कृत माने या स्थविरकृत, इतना तो स्पष्ट है कि उसका मूलाधार वीतराग-वाणी है। स्थविरों ने जो कुछ रचना की है, वह भी गणधर-कृत अंग सूत्रों एवं पूर्वो में से लेकर की है और चतुर्दश पूर्वधर को भी सर्वज्ञ के समान माना है, उसे श्रुत-केवली संबोधन से संबोधित किया है। गणधर सुधर्मा भी आचार्य पद पर स्थापित होते समय सर्वज्ञ नहीं, चतुर्दश पूर्वधर ही थे और वे कई वर्षों तक छद्मस्थ रहे हैं। परन्तु उनके ज्ञान की विशिष्टता के कारण उनकी वाणी को भी वीतराग-वाणी की तरह प्रामाणिक माना गया है। यही कारण है कि अंग बाह्य आगमों को-जो स्पष्टतः स्थविर-कृत हैं और अनेक आगमों के रचयिता स्थविरों के नाम भी उनके साथ संबद्ध हैं, भी प्रामाणिक माना है। परन्तु मध्यकाल में स्थविर की अपेक्षा गणधर शब्द का अधिक महत्त्व माना जाने लगा और इसके कारण अंग बाह्य आगमों को भी गणधर-कृत कहा जाने लगा। उस समय स्थविर शब्द का अर्थ भी गणधर किया जाने लगा। यही कारण है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध को भी गणधर कृत माना गया।
1. आचा. नि. 287