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________________ करते हुए आचार्य शीलांक ने चतुर्दश पूर्वधर को स्थविर माना है' । परन्तु चूर्णिकार ने स्थविर का अर्थ गणधर किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि कुछ विचारक आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को गणधर-कृत और द्वितीय श्रुतस्कन्ध को स्थविर (चतुर्दश पूर्वधर)-कृत मानते हैं और कुछ विचारक दोनों श्रुतस्कन्धों को गणधर कृत मानते हैं। वर्तमान में भारतीय एवं पाश्चात्य ऐतिहासिक एवं दार्शनिक विद्वान प्रथम श्रुतस्कन्ध को ही गणधर-कृत मानते हैं। परन्तु आज के कुछ विद्वान एवं आगमवेत्ता द्वितीय श्रुतस्कन्ध को भी गणधर-कृत स्वीकार करते हैं। प्रस्तुत आगम के व्याख्याकार श्रद्धेय स्व. आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज द्वितीय श्रुतस्कन्ध को गणधर-कृत मानने के पक्ष में है। और इस सम्बन्ध में उनके विचार द्वितीय श्रुतस्कन्ध की भूमिका में दिए हैं। आचार्य श्री के द्वारा किया गया अन्वेषण (Research) और दिए गए तर्क (Arguments) अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। उन्होंने शोध करने वाले विद्वानों (Research scholors) के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया है। __ आचार्य श्री ने अपनी खोजपूर्ण भूमिका में उसे भाषा, भाव, शैली आदि सब दृष्टियों से गणधरकृत सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उनका प्रयत्न कितना सफल रहा है, यह तो विज्ञ पाठक की बता सकते हैं। परन्तु इस दिशा में जो प्रयत्न उन्होंने किया है, वह स्तुत्य है और उनका श्रम हमें चिन्तन के लिए नई प्रेरणा देगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। ... यह तो हम ऊपर देख चुके हैं कि भाषा, भाव एवं शैली की दृष्टि से द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम से सर्वथा भिन्न है। दोनों की भाषा, भाव और शैली में आकाश-पाताल जितना अन्तर है। प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा गम्भीर और प्राञ्जल है, उसके भावों में भी गहनता है और उसकी शैली सूत्रात्मक है। थोड़े शब्दों में बहुत कुछ या सब कुछ कह देने की शैली है। परन्तु द्वितीय श्रुतस्कन्ध में न तो भाषा की प्रांजलता है, न 1. तत्र इदानीं वाच्यं-केनैतानि नियूढानि, किमथ, कुतो वेति? अत आह-‘स्थविरैः' श्रुतवृद्धैश्चतुर्दश- पूर्वविविद्भर्नियूढानि-इति। -आचार्य शीलांक। 2. एयाणि पुण आयारग्णणि आयारा चेव निज्जूढाणि केण णिज्जूढाणि? थेरेहि, थेरा-गणधरा॥ -आचा. चूर्णि, 326
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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