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श्रुतस्कन्ध में कही गई है, वह सब प्रथम श्रुतस्कन्ध में आ ही गई है । अन्तर इतना ही है कि वह संक्षिप्त एवं गम्भीर शैली तथा प्रौढ़ भाषा में कही गई है। इससे ऐसा लगता है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम के साथ बाद में जोड़ा गया होगा। हो सकता है कि उसका ग्रन्थन सुधर्मा ने नहीं, बल्कि अन्य गणधर ने किया हो या स्थविर ने । परन्तु वह है बाद का । फिर भी इस विषय में कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता । इस पर अभी काफी अनुसन्धान करने की आवश्यकता है और यह ऐतिहासिक विद्वानों के शोध (Research) का कार्य है।
आचारांग का समय और निर्माता
नन्दी सूत्र में यह बताया गया है कि द्वादशांगी के प्रणेता तीर्थंकर हैं । आवश्यक निर्युक्ति में भी यह अभिव्यक्त किया गया है कि अरिहन्त - तीर्थंकर भगवान द्वादशांगी का अर्थ रूप से उपदेश देते हैं । अर्थ रूप से उपदिष्ट उस वाणी को गणधर सूत्र रूप में ग्रथित करते हैं। शासन के हित के लिए गणधर तीर्थंकर भगवान के अर्थ रूप प्रवचन को सूत्रबद्ध करते हैं । इससे यह स्पष्ट होता है कि आचारांग का अर्थ रूप से उपदेश भगवान महावीर ने दिया था और गणधर सुधर्मा ने इसे सूत्रबद्ध किया था। अतः गणधरों की सूत्र - रचना का मूलाधार ( Original source) तीर्थंकरों की अर्थ रूप वाणी होने से, तीर्थंकरों को 'आगम-प्रणेता' कहते हैं ।
इससे सिद्ध होता है कि आचारांग के मूल निर्माता भगवान महावीर हैं और उसको सूत्रबद्ध करने वाले गणधर सुधर्मा हैं । इस तरह आचारांग का समय ईसा से छठी शताब्दि पूर्व का सिद्ध होता है । परन्तु इसमें एक प्रश्न उठता है कि दोनों श्रुत-स्कन्ध गणधर-प्रणीत हैं या प्रथम श्रुतस्कन्ध । इसमें दो अभिमत हैं- आचारांग नियुक्ति में द्वितीय श्रुतस्कन्ध को स्थविर - कृत माना है । स्थविर शब्द की व्य
1. नन्दी सूत्र, 40
2. अस्थं भासइ अरहा, सुत्तं गन्थन्ति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तेइ ॥
3. थेरेहिऽणुग्गहट्ठा सीसहिअं होउ पगडत्थं च । आयाराओ अत्थो आयारग्गेसु पविभत्तो ॥
- आवश्यक निर्युक्ति, 192
– आँचा. नि., 287