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शास्त्रों में से लेकर की है। अतः यह कहना या मानना उपयुक्त नहीं है कि स्थविर की रचना गणधरों के मुकाबले में कमजोर है या अप्रामाणिक है; क्योंकि यह तो सबको मान्य हैं कि गणधर भी स्थविरों की तरह 14 पूर्वधर थे और छद्मस्थ ही थे। अंतर इतना ही है कि गणधरों के सामने भगवान महावीर स्वयं विद्यमान थे और स्थविरों के सामने उनकी वाणी थी, उनका प्रवचन था। __इतना तो स्वीकार करना ही होगा कि श्रद्धेय स्व. आचार्य श्री ने द्वितीय श्रुतस्कन्ध के निर्माता कौन हैं, इसे खोज निकालने के लिए अथक परिश्रम किया है और उनके तर्क भी काफी महत्त्वपूर्ण एवं वजनदार हैं। इस खोज से कई नई बातें एवं कई नए तथ्य सामने आए हैं। इससे अब एकदम यह नहीं कहा जा सकता कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध गणधरकृत है ही नहीं। मुझे विश्वास है कि आचार्य श्री की इस खोज से ऐतिहासिक विचारकों को मार्गदर्शन मिलेगा और इससे वे अवश्य ही किसी निर्णय पर पहुंचने में सफल होंगे। ___ इससे यह स्पष्ट होता है कि आचारांग के उपदेष्टा भगवान महावीर हैं और सूत्रकार हैं भगवान महावीर के पंचम गणधर और प्रथम आचार्य सुधर्मा और उसका रचना काल ईसा से छठी शताब्दी पूर्व माना जा सकता है। और द्वितीय श्रुतस्कन्ध का समय भी चौथी और पांचवी शताब्दी के मध्य में ही मान सकते हैं, उसके बाद नहीं। भले ही वह स्थविर कृत भी हो तब भी काफी प्राचीन है। हो सकता है, प्रथम श्रुतस्कन्ध के कुछ वर्ष बाद ही उसकी रचना की गई हो और उसे उसके साथ संलग्न कर दिया गया हो।
आचारांग की शैली
आचारांग के प्रथम-श्रुतस्कन्ध की शैली की तुलना ऐतरेय ब्राह्मण, कृष्ण-यजुर्वेद, धर्मसूत्र आदि की शैली से की जा सकती है। प्रस्तुत आगम की यह विशेषता है कि इसमें गद्य और पद्य का मिश्रण हुआ है। नवम अध्ययन पूरा पद्य में ही है, अन्यत्र गद्य के साथ पद्यों का सुमेल दिखाई देता है। सूत्र-शैली-थोड़े में अधिक कहने की जो विशेषता है, वह भी प्रथम श्रुतस्कन्ध में ही परिलक्षित होती है और अर्थगाम्भीर्य भी प्रस्तुत श्रुतस्कन्ध की भाषा में ही है। इससे आचारांग की प्राचीनता स्पष्टतः सिद्ध होती है।