________________
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
जागते और सोते रहते हैं। परन्तु यहां जागरण और सुषुप्ति का साधारण अर्थ में नहीं, अपितु आध्यात्मिक अर्थ में प्रयोग किया गया है और इसके द्वारा मुनित्वं एवं अमुनित्व का लक्षण बताया गया है। जो सुषुप्त हैं, वे अमुनि है, बोध से रहित हैं और जो सदा जागते रहते हैं, वे मुनि हैं, प्रबुद्ध पुरुष हैं।
470
सुषुप्ति और जागरण के दो भेद हैं- 1. द्रव्य और 2. भाव । निद्रा लेना एवं समय पर जागृत होना द्रव्य सुषुप्ति या जागरण है और विषय, कषाय, प्रमाद, अव्रत आदि में आसक्त एवं संलग्न रहना भाव सुषुप्ति - निद्रा है और त्याग, तप एवं संयम में विवेक पूर्वक लगे रहना भाव जागरण है । असंयम, अव्रत एवं मिथ्यात्व को बढ़ाने वाली क्रिया भाव निद्रा है और संयम, व्रत एवं सम्यग्ज्ञान में अभिवृद्धि करने वाली प्रवृत्ति भाव जागरण है।
इससे स्पष्ट होता है कि जीवन विकास के लिए भाव निद्रा प्रतिबन्धक है। . क्योंकि भाव निद्रा में उसका विवेक सोया रहता है, इसलिए वह अपनी आत्मा का हिताहित नहीं देख पाता और अनेक पापों का संग्रह कर लेता है । आगम में अविवेक पूर्वक की जाने वाली क्रिया को पाप कर्म के बन्ध का कारण माना है। यह सत्य है कि प्रत्येक प्रवृत्ति में क्रिया लगती है । परन्तु जहां विवेक चक्षु खुले हैं, यतना के साथ प्रवृत्ति हो रही है, तो वहां पाप कर्म का बन्ध नहीं होगा और जहां विवेक चक्षु बन्द हैं, वहां पाप कर्म का बन्धं होता है । इससे यह साफ हो गया कि पतन का कारण भाव निद्रा ही है । द्रव्य निद्रा इतनी हानि नहीं पहुंचाती, जितनी भाव निद्रा आत्मा का
करती है । यही कारण है कि भाव निद्रा में निमग्न व्यक्तियों को द्रव्य से जागृत होने पर भी सुषुप्त कहा है और भाव जागरण वाले जीवों को द्रव्य निद्रा लेते समय भी जागृत कहा है। साधु को द्रव्य निद्रा के समय भी जागता हुआ माना है। इसका कारण यह है कि उसकी प्रत्येक क्रिया संयम के लिए होती है और उसके साथ विवेक
चक्षु खुले होते है। संयम में तेजस्विता लाने के लिए वह सोता है। उसका शयन सोने के लिए जागने के लिए है, सुषुप्ति से मुक्त होने के लिए। आगम में जहां साधु समाचारी - दिन-रात की चर्या का उल्लेख किया गया है, वहां बताया है कि साधु तीसरे पहर निद्रा से मुक्त होवे । '
1. तइयाए निद्दमोक्खं तु ।
- उत्तराध्ययन सूत्र 26, 46