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तृतीय अध्ययन, उद्देशक 1 शीतल या उपशांत कह सकते हैं। तात्पर्य यह है कि जो परीषह मन के अनुकूल हैं, उन्हें शीत कहा है और जो प्रतिकूल हैं, उन्हें उष्ण कहा गया है।
नियुक्तिकार ने मोक्ष सुख को शीत एवं कषाय को उष्ण कहा है। क्योंकि मोक्ष में किसी प्रकार का द्वन्द्व नहीं है, एकान्त सुख है और कषाय में तपन है, दुःख है, द्वन्द्व है, इसलिए निर्वाण सुख शीत और कषाय उष्ण है। तात्पर्य यह है कि सुख शीत है और दुःख मात्र उष्ण है। - प्रस्तुत अध्ययन में इसी आभ्यन्तर और बाह्य शीतोष्ण का विवेचन किया गया है। क्योंकि श्रमण शीत-उष्ण या अनुकूल-प्रतिकूल स्पर्श, सुख-दुःख, कषाय, परीषह, वेद, कामवासना और शोक आदि के उपस्थित होने पर उन्हें सहन करता है और समभाव पूर्वक तप-संयम की साधना में संलग्न रहता है। वह अपनी साधना में सदा सजग रहता है। यही प्रस्तुत अध्ययन में बताया गया है कि श्रमण वह है-जो अपने जीवन में सदा-सर्वदा विवेकपूर्वक गति करता है, वह सदा जागृत रहता है। इसका प्रथम सूत्र निम्नोक्त है
मूलम्-सुत्ता अमुणी, सया मुणिणो जागरंति॥106॥ छाया-सुप्ता अमुनयः सदा मुनयः जाग्रति।
पदार्थ-अमुणी-मिथ्यादृष्टि। सुत्ता-भाव निद्रा में सोए पड़े हैं, किन्तु मुणिणो-प्रबुद्ध पुरुष। सया-सदा। जागरंति-जागते हैं। - मूलार्थ-अज्ञानी लोग सदा सोए रहते हैं और मुनि-ज्ञानी जन सदा जागते हैं। हिन्दी-विवेचन
जागरण और सुषुप्ति जीवन की दो अवस्थाएं हैं। मनुष्य दिन भर की शारीरिक, मानसिक एवं मस्तिष्क की थकान को दूर करने के लिए कुछ देर के लिए सोता है
और फिर जागृत होकर अपने काम में लग जाता है। इस प्रकार सांसारिक प्राणी 1. निव्वाणसुहं सायं सीईभूयं पयं अणावाहँ। इहमवि जं किंचि सुहं तं सीयं दुक्खमवि उण्ह॥ ___डज्झइ तिव्वकसाओ सोगऽभिभूओ उइन्नवेओ य। उण्हयरो होइ तवो कसायमाईवि जं
आचाराङ्ग-नियुक्ति 207, 208
डहइ॥