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तृतीय अध्ययन : शीतोष्णीय
प्रथम उद्देशक
प्रथम अध्ययन में आत्मा एवं कर्म के सम्बन्ध तथा पृथ्वी आदि छह कायों में जीव की सजीवता एवं उनकी हिंसा से विरत होने का उपदेश दिया गया है। दूसरे अध्ययन में कषायों पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख किया गया है, परन्तु कषायों का उद्भव पदार्थों के निमित्त से होता है। अच्छे और बुरे पदार्थों को देखकर तथा अनुकूल एवं प्रतिकूल संयोग मिलने पर या परिस्थितियों के उपस्थित होने पर भावना में, विचारों में उत्तेजना एवं अन्य विकार उत्पन्न हो जाते हैं। अतः प्रत्येक परिस्थिति एवं संयोग में भले ही वह अनुकूल हो या प्रतिकूल, समभाव रखना चाहिए। प्रत्येक स्थिति में साम्यभाव को बनाए रखने वाला व्यक्ति ही कषायों पर विजय पा सकता है। अतः प्रस्तुत अध्ययन में यह बताया गया है कि अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों प्रकार के परीषहों के उपस्थित होने पर उनका संवेदन न करे।
प्रस्तुत अध्ययन का 'शीतोष्णीय' नाम है। 'शीतोष्णीय' शब्द का अर्थ है-ठण्डा और गरम, परन्तु इसके अतिरिक्त नियुक्तिकार ने इसका आध्यात्मिक अर्थ करते हुए बताया है-परीषह (कष्ट सहन), प्रमाद, उपशम, विरति और सुख शीत हैं तथा परीषह, तप, उद्यम, कषाय, शोक, वेद, कामाभिलाषा, अरति और दुःख उष्ण हैं। परीषहों की गणना शीत और उष्ण दोनों में करने का कारण यह है-स्त्री और सत्कार परीषह मन को लुभाने वाले होने से शीत हैं और शेष बीस परीषह प्रतिकूल होने से उष्ण हैं। एक विचारणा यह भी है कि तीव्र परिणामी उष्ण और मन्द परिणामी शीत हैं।
व्यवहार में भी, जो व्यक्ति धर्म में एवं व्यवसाय के कार्य में प्रमादी-आलसी या सुस्त होता है, उसे ठण्डा और जो मेहनती-परिश्रमी होता है, उसे उष्ण-तेज या गरम कहते हैं। जब कोई व्यक्ति आवेश में होता है तो झट कह दिया जाता है कि यह क्रोध में जल रहा है। अतः जिस व्यक्ति के क्रोध आदि उपशांत हो गए हैं, उसे