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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
रहूँगा और मैं मुक्त था । इस स्वरूप का बोध अन्तर - अन्वेषण में यह देखने पर कि बन्धन क्या है, समझ में आता है । बन्धन एक भ्रम है । किसने किसको बांध रखा है ? स्व ने ही स्व को बाँधा है। मूल में बन्धन अज्ञान है। भ्रम है, मिथ्यात्व है, मूर्च्छा है। वास्तव में बन्धन है ही नहीं । केवल मूर्च्छा-वश दिखाई पड़ता है कि मैं बँधा हूँ । वास्तव में अज्ञान ही है। लेकिन कर्मों के वश, संस्कारों के वश लगता है कि मैं अज्ञानी हूँ। जो कर्म संस्कारों के वश लगता है कि मैं बन्धन में हूँ तो इच्छा होती है मुक्त हो जाऊँ । यह अनुभव प्रत्येक जीव का है। लेकिन प्रत्येक जीव के बन्धन का स्वरूप अलग है। किसी को यह लग रहा है कि मैं परिवार के बन्धन में हूँ। मेरा परिवार मेरा बन्धन है। किसी को लगता है कि मैं शरीर की अस्वस्थता के बन्धन में हूँ। यह बीमारी मेरा बन्धन है । किसी को लगता है कि मैं विचारों के बन्धन में हूँ, ये विचार मेरे बन्धन हैं। जैसा जैसा उसे बन्धन का अनुभव होगा, जिस स्वरूप और जिस अर्थों में उसे बन्धन का अनुभव होगा, वैसे स्वरूप और वैसे अर्थों में मुक्ति का उपाय भी ढूँढ़ेगा।
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मुक्ति का स्वरूप : बन्धन का प्रतिरूप
जैसे किसी को लगता है, मेरी गरीबी मेरा बन्धन है, मैं स्वामी के बन्धन में हूँ । तब वह उपाय खोजेगा कि मैं कैसे धनवान बन जाऊँ । उसके लिए गरीबी बन्धन है तो धनवान होना मुक्ति है । दासत्व बन्धन है तो दासत्व से मुक्त होकर स्वामी हो जाना मुक्ति है। नियम और उप-नियम बन्धन हैं । कायदे और कानून बन्धन हैं, परिवार बन्धन है। तो वह कायदे-कानून और परिवार से दूर भागने का प्रयत्न करेगा।. साधारण समझ यह है कि संसार एक बन्धन है । लेकिन वस्तुतः बन्धन का बन्धन के रूप में प्रतीत होना ही संसार है । कहते हैं परिवार एक बन्धन है । अंतः परिवार का मोह छोड़ो, लेकिन जहाँ जाओगे, वहाँ एक परिवार । फिर वहाँ-वहाँ भी बन्धन लगेगा। वस्तुतः जो परिवार को बन्धन रूप मानते हैं, वे जहाँ भी जाएंगे इस खोज में रहेंगे कि परिवार से मैं मुक्त कैसे हो जाऊँ । बन्धन न परिवार में है, न धन में है, न गरीबी में है, न शरीर में है और न विचारों में ही है । फिर बन्धन है क्या, यह देखना आवश्यक है।
जब पुनः-पुनः अपना अन्वेषण करोगे समत्व और अप्रमत्तता में स्थिर होगे, तब