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अध्यात्मसार: 6
• अथवा कर्म के कारण। जब दुःख क्या है, यह जान गये तब उस दुःख का वास्तविक कारण भी जान जाएंगे।
देखो कि दुःख क्या है। इसमें सोचना नहीं है, वरन् शान्त भाव से बैठ जाओ, और साक्षीभाव से देखो, जो विचार आ रहे हैं, जा रहे हैं। जो भी अनुभव में आ रहा है और उसके प्रति मन में प्रतिक्रियाएं उठ रही हैं, देखो कि आज मैं दुःखी हूँ। इस प्रकार से निष्पक्ष भाव से जो कुछ भी याद आ रहा है, भीतर गतिविधि चल रही है, बस उसे देखते रहो और उसके प्रति कोई प्रतिक्रिया जागे तो उस प्रतिक्रिया को भी देखो। हर बार देखोगे तो हर बार नया-नया सत्य सामने आएगा। हर बार नया, नया अनुभव होगा।
इसी प्रकार सुखी हो गये, तब भी भीतर देखो कि यह क्या हो रहा है। क्या है सुख? इस प्रकार जो सुख और दुःख को देखना सीख गया, उनके कारण और निवारण से अवगत हो गया, तो उसे 'खेदज्ञ' कहते हैं।
मूलतः ज्ञाता-द्रष्टा भाव समान हैं, लेकिन प्रत्येक की अनुभूति अलग-अलग है।
तीव्र भूख लगे तब देखना कि भूख क्या है। कुछ क्षण देखो कि भीतर क्या हो रहा है। क्या है भावना, कैसे हैं परिणाम शरीर के स्तर पर क्या हो रहा है, मन क्या कह रहा है। शरीर और मन दोनों के स्तर पर क्या हो रहा है? कहने के लिए दो स्तर हैं। वस्तुतः समग्रता में चेतना में क्या हो रहा है? इसी को कहा है-'अप्पा अप्पणो अढे’ आत्मा के द्वारा आत्मा के अर्थ को अनुभव भी चेतना को हो रहा है। उस
अनुभव को जानने और देखने वाला भी चैतन्य, देखने का अर्थ केवल साक्षी-भाव . से। इस देखने में सब कुछ आ गया। केवल देखना है, करना कुछ भी नहीं।
बन्ध पमुक्ख मन्नेसी : बन्धन और मुक्ति का अन्वेषक . जो बन्धन और मुक्ति से अलग है, अर्थात् जो न बन्धन में है न मुक्ति में है। बन्धन और मुक्ति एक भेद है। ऐसे ही जैसे जन्म और मरण, रोगी और स्वस्थ, सुखी
और दुःखी, ज्ञानी और अज्ञानी, वैसे ही बन्धन और मुक्ति का भेद है। अभेद जो इन दोनों से परे हो गया, वहाँ मैं हूँ। जो इन दोनों से परे हो गया और जिसने यह जान लिया कि मैं मुक्त हूँ। मैं मुक्त हो गया हूँ ऐसा नहीं, अपितु मैं मुक्त हूँ और मुक्त