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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
है स्वरूप का बोध, बाकी सब सामान्य । ऐसा व्यक्ति, ऐसा वीर ही समर्थ है। अन्य लोगों को मुक्त करवाने के लिए ।
केवलज्ञानी की दृष्टि में: सर्व दिशाओं के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को ज्ञान से युक्त होने के कारण मिथ्यात्व से विमुक्त होने के कारण राग-द्वेष से मुक्त है, हिंसा अलिप्त है।
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'से मेहावी अणुग्घायणखेयन्ने' वह मेधावी मेधा से युक्त है । एक साधारण व्यक्ति है और दूसरा साधना के माध्यम से परिपक्व तीव्र एवं स्पष्ट बुद्धि | साधना के माध्यम से, एक को अनुभव से अपना ज्ञान प्राप्त होता है, और दूसरा गुरु की श्रा में श्रुत ज्ञान के अभ्यास करते हुए ज्ञानी बनता है । इन दोनों साधकों में 'जो बुद्धि उत्पन्न होती है' और बुद्धि में जो परिपक्वता, स्पष्टता, निर्मलता एवं तीव्रता आती है, उसे मेधा कहते हैं । जिसे अपनी दिशा, अपना मार्ग और गन्तव्य स्पष्ट हो गया है। शरीर और मन की उपशान्ति के कारण जिसे स्वरूप की प्रतीति हुई है और उस प्रतीति के आधार पर जिसको अपना गन्तव्य स्थान का पता लग गया है, जिसकी इन्द्रियाँ अन्तर्मुखी हो गयी हैं, बोध के कारण जबर्दस्ती नहीं । ऐसी अवस्था में जो बुद्धि विद्यमान है, उसे मेधा कहते हैं । इसी प्रकार आगे बढ़ते हुए, बुद्धि जो उच्च स्तरीय स्वरूप लेती है, उसे प्रज्ञा कहते हैं ।
प्रज्ञा : यह बुद्धि का उच्चतम रूप है । जब स्वरूप की स्पष्ट प्रतीति होती है, तब प्रज्ञा का जागरण होता है । अध्यात्म की शुरूआत का प्रारम्भ होता है मेधा से और उच्चतम प्रज्ञा। इसके बाद फिर अवधिज्ञान, मनः पर्यव ज्ञान जो, इन्द्रियातीत हैं, बुद्धि से परे हैं। ऐसा मेधावी साधक अणुग्घायणखेयन्ने - कर्मों का अनुघात करने
वाला है।
खेयन्ने : भीतर कुछ चुभन हुई, कहीं कोई चोट लगी। जो दुःख को जानता है कि दुःख क्या है ? हम सभी दुःखी होते हैं और सुखी भी होते हैं । लेकिन यह नहीं जानते कि दुःख क्या है, और सुख क्या है । जिस दिन यह पता चल जाए कि दुःख क्या है और सुख क्या है, तब फिर उसका कारण और फिर निवारण दोनों का ही पता चल जाता है। हमने कभी भीतर जाकर देखा ही नहीं कि दुःख क्या है। हम कहते हैं कि मैं दुःखी हूँ और अनुभव करते हुए कि मैं दुःखी हूँ तो दुःख का कारण खोजने लगते हैं, तब हमें लगता है यह उस व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति के कारण