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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
इस प्रकार कषाय की उपशांति के लिए और उपशांति के साथ जो तप-अनुष्ठान किया जाता है, वही संवर - निर्जरा का कारण है तथा वास्तविक तप है, और कषाय पूर्वक जो तप किया जाता है, वह बालतप अथवा अज्ञानतप है।
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जैसे यदि कोई साधु कहता है कि मैं अन्य साधुओं से अधिक और शुद्ध क्रियानुष्ठान का पालन करता हूँ । अतः मैं दूसरों से महान हूँ। यह अहंकार का पोषण है। सभी जीव महान हैं।
जीवो मंगलम्
मुझे सभी जीवों की सेवा करने का अवसर मिला है। मैं एक सेवक हूँ । व्यर्थ की तुलना छोड़ दो। इसी तुलनात्मक दृष्टिकोण के कारण अनेकानेक सालों के बाह्य क्रियानुष्ठान के बाद भी साधक वहीं का वहीं है। मूल बात है, कषाय की उपशान्तता । इसीलिए तप और दान जितने गुप्त रहें, उतने ही फलदायी होते हैं।
लोच के सम्बन्ध में ये सारी बातें इसलिए हैं कि आपकी समझ बढ़े । यदि कोई समझना चाहे तो समझ सकता है; अन्यथा यह बात जन-साधारण की समझ में आने योग्य नहीं है। लोच का अपना महत्त्व है । इस सम्बन्ध में हम कोई छूट नहीं दे सकते। हमें यह भी देखना है कि इसका हम साधना के लिए कैसे उपयोग कर सकते हैं। फिर भी मूल बात भाव की है कि संवत्सरी के दिन रोटी खाने वाले भी केवल ज्ञान को उपलब्ध हो जाते हैं। वस्तुतः जिनशासन का मार्ग अनेकान्त का मार्ग है । यहाँ कोई पकड़ नहीं है। पकड़ करोगे तो अटक जाओगे । इसीलिए इसे समझने के लिए प्रज्ञा और सूक्ष्म बुद्धि की आवश्यकता है। लेकिन आज अधिकांश लोग जड़ और वक्र-बुद्धि के हैं। अतः धर्म इतना सीधा, सरल, स्पष्ट, सुगम होते हुए भी लोग समझ 'नहीं पाते हैं। इस कारण आप स्वयं साधना करें। इसी साधना के माध्यम से अनेकानेक भव्य जीवों का उद्धार होने वाला है । अपनी स्वयं की साधना करते हुए आप जो भी जनकल्याण, समाज-विकास का कार्य कर सकते हैं, अवश्य करें । परन्तु अपनी साधना से हटकर नहीं । साधना को प्रमुखता दें।
वैर से वैर का उपशमन नहीं होता । क्षमा से ही वैर का उपशमन होता है। यह कितना सरल, सत्य है । धर्म और साधना के नाम पर क्या संघर्ष ? पहले वैदिक मान्यता वालों ने श्रमण धर्म का विरोध किया, फिर श्रमणों ने वेद को मिथ्यात्व कहा,