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अध्यात्मसार: 6
- बना दिया गया इसलिए अब यह व्यवहार से चारित्र का एक अंग बन गया है। ऐसे देखा जाए तो, तुम व्यवहार में इसकी कोई स्पष्ट कड़ी नहीं दिखा पाओगे। लेकिन आचार्यों ने इसे न्यूनतम तप को योग्य समझा।
जितने भी साधन और सुविधाएं बढ़ाएंगे, उतना ही प्रमाद बढ़ेगा। इस कारण भगवान पार्श्वनाथ के समय में साधु जन सभी रंग के कपड़े पहन सकते थे। लेकिन भगवान महावीर ने अपने शासन में केवल श्वेत रंग का ही विधान रखा, क्योंकि उन्होंने देखा, पंचमकाल में मोह का प्रबल उदय है और कर्म बीज भारी है ।
उन्होंने देखा कि आगे आने वाली मोह की आँधी में लोग भाँति-भाँति के वस्त्र पहनेंगे, अतः केवल सफेद वस्त्र की मर्यादा कर दी।
लोच से कायक्लेश तप के सभी लाभ प्राप्त हो जाते हैं । जैसे शरीर की जड़ता का दूर होना । शरीर पर नियंत्रण बढ़ना इत्यादि । ऐसे तो दीक्षा के समय लोच करनी चाहिए, लेकिन अब केवल प्रतीक मात्र के रूप से उस विधान का निर्वाह होता है । पंच मुष्टि का अर्थ - पाँच बार में ही वे सम्पूर्ण केशराशि को अलग कर देते हैं।
इस प्रकार के तप से कर्मनिर्जरा किस प्रकार होती है ? कर्म - निर्जरा का मूल आधार भाव है । यदि कषाय की उपशान्ति के साथ में और कषाय की उपशांति के लिए जो भी तप किया जाता है, उससे संवर और निर्जरा का वेग बढ़ता है और आत्मा निर्मल होती है। यदि कषायवश, क्रोधवश, गुस्से में आकर अहंकारवश, मान-सम्मान को प्राप्त करने के लिए, दूसरे के समक्ष, दूसरे से अधिक, अपने आपको • ऊँचा बताने के लिए, सिद्ध करने के लिए, अपने चारित्र के अन्य दोषों का गोपन करने के लिए, ताकि लोगों का ध्यान तप के लिए आकर्षित हो और स्वयं के दोष ढक जाएँ। इस प्रकार मायापूर्वक अथवा किसी ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति के लिए लौकिक-पारलौकिक, दैविक इत्यादि लोभवश जब-तप का अनुष्ठान किया जाता है; अनशन से लेकर काय- क्लेश तक सारे बाह्य तप, क्योंकि आभ्यन्तर तप कषायवश नहीं हो सकते, तब कर्मों की संवर निर्जरा होने की अपेक्षा पुण्यबन्ध होता है और वह भी पापानुबन्धी पुण्य। उससे भविष्य में पुण्य उपलब्ध होने वाले सारे भोग-उपभोग के साधन मिलते हैं। इसे ही अज्ञान तप या बाल तप कहते हैं । जैसे तापस - कमठ, गौशालक ।