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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
मिलते हैं।
लोच है। जैसे उपवास तप का प्रथम प्रकार है, उसी प्रकार बाह्य तप का अन्तिम प्रकार कायक्लेश के अन्तर्गत आता है।
यदि किसी ने संवत्सरी को उपवास नहीं किया, तब उसे पंच महाव्रत को कोई दोष तो नहीं लगेगा, क्योंकि इस संदर्भ में भगवान ने कोई विशेष निर्देश भी नहीं दिया है। लेकिन पूर्वाचार्यों ने देखा कि सभी साधुजनों को कम-से-कम इतना तप तो करना ही चाहिए, इसलिए यह नियम बनाया। क्योंकि उन्होंने देखा कि पंचमकाल में प्रमाद बढ़ गया है और उसका प्रमाण आप आसपास देखते हैं कि जहाँ पर केवल एक बार भोजन का विधान था, वहाँ पर आज साधुजन बहुत अधिक समय आहार इत्यादि में व्यतीत करते हैं। यह देखकर सोचकर उन्हें लगा, कम-से-कम इतनी लगाम तो लगानी ही होगी। ऐसे तो न्यूनतम महीने में दो उपवास जरूरी हैं। इसी प्रकार यह लोच है। इसमें प्रथम बात तो यह है कि व्यक्ति स्वयं पर निर्भर रहे! दूसरी मूल बात यह कि काय-क्लेश तप का हिस्सा है। इससे शरीर में दृढ़ता आती है, सहनशीलता बढ़ती है, साधना में सहयोग मिलता है। इसके अतिरिक्त काय-क्लेश तप के जो भी लाभ हैं, वे सभी लोच में मिलते हैं। ___लोच का अभाव मूलव्रतों में तो कोई दोष नहीं लाता। लेकिन साधुजनों के लिए न्यूनतम आवश्यक तप होने की वजह से, लोच का अभाव नियम भंग गिना जाता है। भगवान के समय में भी सभी लोच करते थे और स्वयं ही करते थे, क्योंकि श्रमण को केश विभूषा नहीं करनी, स्त्री एवं पुरुष दोनों के लिए। श्रमण के सिर पर इतने केश नहीं होने चाहिए कि विभूषा के योग्य हों। इसलिए कहा, साल में दो बार लोच। उत्सर्ग-मार्ग यही है। अपवाद मार्ग इसके अतिरिक्त कुछ भी हो सकता है। इसमें भी रोगी, तपस्वी, बाल और वृद्ध-इन चारों का आगार कहा गया है। ___ जिनशासन जड़ता का मार्ग नहीं है। मूल बात क्या है? किसी भी प्रकार के तप के सम्बन्ध में। क्षमता होते हुए चोरी नहीं करना। नहीं तो साधक का प्रमाद बढ़ेगा। ऐसे ही यदि अपवाद मार्ग पर चलने की छूट दे देंगे, तब प्रमाद अवश्य ही बढ़ जाएगा।
लोच का सम्बन्ध तप से अधिक है, चारित्र से कम। निश्चय में विशेष रूप से यह तप ही है, लेकिन सभी साधुजनों के लिए यह न्यूनतम काय-क्लेश तप आवश्यक