________________
अध्यात्मसार : 6
459
और प्रशिक्षण आवश्यक है। किसी भी विषय को लें, जहाँ तक हो सके इसकी निरन्तरता बनाए रखते हुए, इसे पूरा करें। किसी विशेष कारण के अतिरिक्त किसी अमुक विषय को बीच में ही अधूरा छोड़ कर दूसरा विषय चालू न करें। यह भी स्वाध्याय का एक महत्त्वपूर्ण नियम है।
जिस विषय पर आपने प्रवचन सुनाया है और प्रयोग करवाया है, अगर आप चाहें तो कुछ लिखित सामग्री भी उन्हें दे सकते हैं, जो व्यक्ति भविष्य में उस साधना को जीवन में गतिमान रखना चाहते हैं। - तप और अणुव्रत : तप और अणुव्रत का ऐसा ही सम्बन्ध है जैसे संवर और निर्जरा का। अणुव्रत सहित तप करने पर 'अनशन करने पर' संवर और निर्जरा का लाभ होता है। बिना व्रत लिए तप करते हैं तो शुभ भावों के परिणाम से निर्जरा भी होती है परन्तु अधिकांशतः पुण्य बन्धन होता है। संवर निर्जरा का पूर्ण लाभ नहीं मिलता है और इससे भी आगे यह अनुभव की बात है। एक बिना व्रत के तप करके देखना और एक व्रत सहित तप करके देखें, व्यक्ति को स्वयं ही अन्तर का अनुभव " होगा। बिना व्रत लिए तप करने पर मन के भाव क्या होते हैं और व्रत सहित तप करने पर मन के भाव क्या होते हैं, इसका निरीक्षण करें।
तप और ध्यान : ध्यान और कायोत्सर्ग साधु एवं श्रावक की मूल साधना है। साथ में व्रत, अनशन इत्यादि बाह्य साधना के मुख्य अंग हैं। वस्तुतः मन को उपशांत करने के लिए ही अनशन किया जाता है। व्रत, अनशन इन सभी के साथ ध्यान का होना आवश्यक है। ध्यान और कायोत्सर्ग भी आभ्यन्तर साधना की परिवृद्धि के लिए बाह्य साधन हैं और उपयोगी हैं। लेकिन ये पूर्ण रूप से प्रभावित एवं विकसित तभी होते हैं, जब आभ्यन्तर साधना साथ में हो, क्योंकि ये आभ्यन्तर साधना के लिए ही हैं। प्रार्थना-स्तुति ये स्वाध्याय के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं।
लोच का महत्त्व प्रश्न-लोच चारित्र के अन्तर्गत है या तप के अन्तर्गत और यह क्यों आवश्यक है?
उत्तर-लोच एक रूप से चारित्र भी है और एक अन्य प्रकार से तप भी है। जैसे संवत्सरी के दिन सभी साधुजनों को उपवास करना आवश्यक कहा गया, उसी प्रकार ..