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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
चाहते हैं, उस विषय का जीवन के साथ क्या सम्बन्ध है । दैनिक जीवन में उसका क्या उपयोग है, उसका व्यावहारिक स्वरूप क्या है ? यह सब कुछ स्वयं के अभ्यास के द्वारा जानकर तैयार करना ।
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प्रथम उसको अपने जीवन में उतारकर देखना । अनुभव करना, उसके बाद उस अनुभव को खयाल में रखते हुए, लोगों को विविध दृष्टान्त एवं अनुभवों के सरल एवं स्पष्ट विवरण द्वारा समझाना। यदि एक घण्टे का प्रवचन हो तो पहले आधा या पौना घण्टा समझाना और शेषकाल में उसके व्यावहारिक स्वरूप को उन्हें करवाना, जिससे लोगों को यह समझ में आ जाए कि उसके सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों स्वरूप क्या हैं और उन्हें हम अपने जीवन में किस प्रकार उतार सकते हैं, यह भी उन्हें बोध हो जाएगा। तत्पश्चात् इस बात को उन्हें घर पर करके देखने के लिए कहना और यह भी बताना कि सुनने व समझने का फायदा तभी है, जब आप अपने जीवन में साधना और प्रयोग करेंगे; अन्यथा केवल शब्द एवं बुद्धि विलास है।
सुनने के सम्बन्ध में श्रोताओं को जागरूक और जिम्मेदार बनाना। आज आपने क्या सुना और आपको क्या समझ में आया, इन प्रयोगों को जीवन में करने से, इस साधना के माध्यम से, आपको अपने जीवन में क्या अनुभव हुए इत्यादि कुछ बातें, घर से लिखकर लाने के लिए कहना । यह सब करेंगे, तब वास्तव में कुछ समझ में आएगा और जीवन की दिशा में परिवर्तन होगा; अन्यथा केवल ऐसे ही सुनते रहना व्यर्थ है।
इस धर्मकथा के लिए कोई भी विषय ले सकते हैं । जैसे ध्यान, स्वाध्याय, ऊँकार का स्वरूप जैन तत्त्व प्रकाश में दिये हुए विविध विषय, चार भावनाएं इत्यादि । इन प्रवचनों में नये लोग भी आकर बैठ सकते हैं। यह सभी के लिए खुला है। लेकिन जो निरन्तर आते हैं, उन्हें अहसास दिलाना जरूरी है कि जो सुना, उसका अभ्यासं करना आवश्यक है । एक प्रयोग के रूप में । विषय को यथातथ्य समझने के लिए यदि उनको अच्छा लगे तो आगे कर सकते हैं, अन्यथा नहीं ।
यही प्रवचन और भाषण में अन्तर है । भाषण केवल सुनने के लिए होते हैं और प्रवचन जीवन के प्रशिक्षण और परिवर्तन के लिए हैं । अतः प्रवचन में वक्ता और श्रोता दोनों का साथ में मिलकर चलना, सिद्धान्त और प्रयोग दोनों का स्पष्टीकरण