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________________ अध्यात्मसार : 6 451 • जैसे प्रभु ने बताया कि कन्द-मूल में अनन्त जीव हैं और हमने स्वीकार किया कि प्रभु ने जो कहा है, वह सत्य है। फिर हमने उसका त्याग किया। जैसे प्रभु ने बताया कि रात्रि में भोजन करने से असंख्यात जीवों की हिंसा होती है। स्थविर-एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक, पंचेन्द्रिय सूक्ष्म समुर्छिम जीव। इस प्रकार एक से लेकर पंचेन्द्रिय तक की हिंसा हो सकती है। आहार के प्रत्येक स्थान में जीवोत्पत्ति हो जाती है। हमने यह सब प्रत्यक्ष और पूर्ण रूप से नहीं देखा, लेकिन भगवान ने जो देखा, वह मैं मानता हूँ और तदनुसार आचरण करता हूँ। आचरण कर भी सधैं या न भी कर सकूँ, लेकिन मैं स्वीकार जरूर करता हूँ। व्यवहार सम्यक्त्व में सबसे बड़ी दुविधा क्या है? दुविधा यह है कि भगवान ने वास्तव में क्या कहा? सभी अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याख्या करते हैं। भले ही सभी एक ही भगवान और एक ही शासन को मानने वाले हैं, लेकिन मान्यताओं में बड़ा भेद है। जैसे कोई कहता है कि मन्दिर में जाना पुण्य बन्धन और कर्म-निर्जरा का कारण है। कोई कहता है मंदिर में जाना ठीक नहीं है। अब सामान्य जनता इतनी प्रज्ञावान नहीं है कि वह दोनों ही दृष्टिकोण के पीछे रहे हुए आधार को देख पाए। अतः भ्रान्ति होना स्वाभाविक है। इसका उपाय क्या है? अनेकान्त दृष्टि : यदि साधुजन कहें कि मुझे यह मार्ग ऐसा लग रहा है। यह मेरा सोचना अथवा मेरा अनुभव अथवा मेरा अनुमान है। बल्कि इसके विपरीत भी सत्य हो सकता है। लेकिन जब दो विरोधी मान्यता वाले, धर्म गुरु हों और दोनों ही कहें मेरी ही बात सत्य है तब श्रोता असमंजस और दुविधा में पड़ जाते हैं। अनेकान्तवाद का सहारा सभी दृष्टिकोणों को अपने में समाहित कर लेता है। अनेकान्त में समन्वय है, सत्य है, शान्ति, प्रेम और सौहार्द है तथा एकान्त में संघर्ष है। यदि व्यवहार में अनेकान्तवाद का आधार लिया जाए, तब कोई दुविधा नहीं। जैसे आपको लगता है ध्यान कर्म निर्जरा हेतु सर्वोत्तम मार्ग है, तब कोई कहेगा ध्यान करने से कुछ नहीं होता, स्वाध्याय करो। अब अनेकान्त की दृष्टि से देखें तो अनेकान्त किसी का विरोध नहीं करता। ‘जीवो मंगलम्' सभी जीव मंगल हैं। यदि कोई विरोध भी करता है, तब भी हमें उनका विरोध नहीं करना। कहना कि उनकी बात भी ठीक हो सकती है, लेकिन मुझे यह बात ऐसी प्रतीत होती है और हो सकता है कि वे मेरी बात को
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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